क्या कॉलेजियम प्रणाली समाप्त होने वाली है? न्यायिक नियुक्तियों में सुधार की आवश्यकता

परिचय
भारत में न्यायिक नियुक्तियों को लेकर बहस एक बार फिर तेज हो गई है। कॉलेजियम प्रणाली, जो अब तक उच्च न्यायपालिका की नियुक्तियों का आधार रही है, पारदर्शिता, जवाबदेही और विविधता की कमी के कारण आलोचनाओं के घेरे में है। इस बीच, दिल्ली हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश के घर से बड़ी मात्रा में नकदी बरामद होने की घटना ने न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
इस लेख में, एक वकील के दृष्टिकोण से कॉलेजियम प्रणाली की खामियों, न्यायिक सुधारों की आवश्यकता और नेशनल जुडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन (NJAC) को फिर से लागू करने या किसी अन्य बेहतर विकल्प की संभावनाओं पर चर्चा की गई है।
कॉलेजियम प्रणाली क्या है?
कॉलेजियम प्रणाली एक न्यायाधीश-नेतृत्व वाली प्रणाली है, जिसमें मुख्य न्यायाधीश (CJI) और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीश उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण का निर्णय लेते हैं। यह प्रणाली भारतीय संविधान में सीधे तौर पर उल्लेखित नहीं है, बल्कि यह “तीन जजों के फैसले” (1981, 1993, 1998) के तहत विकसित हुई थी।
कॉलेजियम प्रणाली की प्रमुख विशेषताएं:
- कौन निर्णय लेता है? भारत के मुख्य न्यायाधीश और चार वरिष्ठतम सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश।
- सरकार की भूमिका क्या है? कॉलेजियम के प्रस्ताव को सरकार एक बार लौटा सकती है, लेकिन यदि कॉलेजियम फिर से वही नाम भेजता है, तो सरकार को उसे मंजूरी देनी ही पड़ती है।
- संवैधानिक आधार नहीं: कॉलेजियम प्रणाली संविधान में उल्लिखित नहीं है, बल्कि यह न्यायिक निर्णयों के माध्यम से अस्तित्व में आई है।
कॉलेजियम प्रणाली की आलोचनाएं
1. पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी
कॉलेजियम प्रणाली की सबसे बड़ी आलोचना इसकी गोपनीयता है। चयन प्रक्रिया में कोई स्पष्ट मानदंड नहीं होता, और नामों के चयन या अस्वीकार करने के कारण सार्वजनिक नहीं किए जाते। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने भी इसे “बंद कमरे की प्रक्रिया” करार दिया था, जिसमें पारदर्शिता और निष्पक्षता की कमी है।
2. न्यायिक रिक्तियां और लंबित मामले
कॉलेजियम प्रणाली की अक्षमता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि 60 लाख से अधिक मामले उच्च न्यायालयों में लंबित हैं, जबकि करीब 30% न्यायिक पद खाली पड़े हैं। नियुक्तियों में देरी के कारण न्याय तक पहुंच प्रभावित होती है।
3. जातिगत और समुदाय आधारित प्रतिनिधित्व की कमी
कॉलेजियम प्रणाली में विविधता की भारी कमी है। कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल द्वारा 2018-2025 के बीच प्रस्तुत आंकड़े इस असमानता को उजागर करते हैं:
- सवर्ण (उच्च जाति): 78% (715 हाई कोर्ट न्यायाधीशों में)
- अनुसूचित जाति (SC): 22 न्यायाधीश
- अनुसूचित जनजाति (ST): 16 न्यायाधीश
- अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC): 89 न्यायाधीश
- अल्पसंख्यक समुदाय: 37 न्यायाधीश
इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि न्यायिक नियुक्तियों में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का बहुत कम प्रतिनिधित्व है। यह सामाजिक न्याय के मूल सिद्धांतों के खिलाफ जाता है।
4. भाई-भतीजावाद और परिवारवाद
कई लोगों का मानना है कि कॉलेजियम प्रणाली में न्यायाधीशों के रिश्तेदारों और प्रभावशाली कानूनी परिवारों को प्राथमिकता दी जाती है। 2015 की एक रिपोर्ट के अनुसार,
- लगभग 50% हाई कोर्ट जज और 33% सुप्रीम कोर्ट जज न्यायपालिका से जुड़े परिवारों से आते हैं।
- यह “अंकल जज सिंड्रोम” को जन्म देता है, जहां एक न्यायाधीश अपने रिश्तेदारों को न्यायपालिका में शामिल करने में मदद करता है।
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) और उसकी असफलता
इन समस्याओं को हल करने के लिए, 99वें संविधान संशोधन (2014) के तहत राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) की स्थापना की गई थी, जिसे कॉलेजियम प्रणाली की जगह लेना था।
NJAC की संरचना:
- भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) – अध्यक्ष
- दो वरिष्ठतम सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश
- कानून एवं न्याय मंत्री
- दो प्रतिष्ठित व्यक्ति (प्रधानमंत्री, CJI, और विपक्ष के नेता द्वारा चयनित)
NJAC को असंवैधानिक क्यों घोषित किया गया?
2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने NJAC को असंवैधानिक करार दिया, यह तर्क देते हुए कि इसमें सरकार की भागीदारी न्यायिक स्वतंत्रता को खतरे में डाल सकती है।
हाल की घटनाएं और सुधार की आवश्यकता
हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट के एक जज के घर से नकदी बरामद होने की घटना ने न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही पर सवाल खड़े कर दिए हैं। साथ ही, जातिगत प्रतिनिधित्व की मांग ने इस बहस को और तेज कर दिया है कि क्या NJAC को दोबारा लागू किया जाना चाहिए या कॉलेजियम प्रणाली में सुधार किया जाना चाहिए।
संभावित समाधान
1. संशोधित NJAC मॉडल
NJAC को पूरी तरह खारिज करने के बजाय एक संशोधित मॉडल लाया जा सकता है, जिसमें न्यायिक स्वतंत्रता बनाए रखते हुए अधिक पारदर्शिता जोड़ी जाए।
- सरकार की भूमिका केवल निगरानी तक सीमित रखी जाए, न कि सक्रिय भागीदारी तक।
- विविध समुदायों के प्रतिनिधि (वरिष्ठ अधिवक्ता, कानूनी विशेषज्ञ, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्य) शामिल किए जाएं।
- नियुक्ति प्रक्रिया को अधिक समावेशी और जवाबदेह बनाया जाए।
2. कॉलेजियम में पारदर्शिता सुधार
यदि कॉलेजियम प्रणाली को जारी रखना है, तो इसमें कुछ महत्वपूर्ण सुधार किए जाने चाहिए:
- नियुक्तियों और अस्वीकृतियों के कारणों को सार्वजनिक रूप से साझा किया जाए।
- वरिष्ठ वकीलों और सामाजिक संगठनों से परामर्श किया जाए।
- OBC, SC, ST और अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण जैसा सिस्टम लागू किया जाए।
3. न्यायिक नियुक्तियों की संसदीय निगरानी
ब्रिटेन की जूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन (UK Judicial Appointments Commission) की तर्ज पर एक संकर प्रणाली अपनाई जा सकती है, जहां न्यायपालिका की प्रधानता बनी रहे, लेकिन नियुक्तियों की संसदीय निगरानी हो।
निष्कर्ष
कॉलेजियम प्रणाली न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बनाई गई थी, लेकिन यह पारदर्शिता, जवाबदेही और विविधता सुनिश्चित करने में असफल रही है।
- NJAC को 2015 में खारिज करना एक चूक हो सकता है, लेकिन अब जब न्यायपालिका की साख पर सवाल उठ रहे हैं, तो सुधार की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है।
- संशोधित NJAC, एक पारदर्शी कॉलेजियम प्रणाली, या एक संकर मॉडल – किसी भी रूप में, भारत को एक स्वच्छ, समावेशी और जवाबदेह न्यायिक नियुक्ति प्रणाली अपनानी होगी।
अब न्यायिक सुधार की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा है!
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