उत्तर प्रदेश में विधिक अराजकता पर सर्वोच्च न्यायालय की तल्ख टिप्पणी — एक अधिवक्ता की दृष्टि से


प्रस्तावना:

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में दीवानी मामलों को आपराधिक मुकदमों का स्वरूप देने की प्रवृत्ति पर सख्त टिप्पणी की है। यह टिप्पणी न केवल एक मामले की पृष्ठभूमि में आई, बल्कि यह उस व्यापक अव्यवस्था की ओर संकेत करती है, जो वर्तमान समय में विधिक प्रक्रिया की मर्यादा को लांघ रही है। एक अधिवक्ता होने के नाते, यह स्थिति न केवल चिंताजनक है, बल्कि न्यायिक मूल्यों की रक्षा हेतु सजग दृष्टिकोण की माँग भी करती है।


न्यायिक सीमाओं का उल्लंघन:

भारतीय विधि व्यवस्था में दीवानी और आपराधिक न्याय प्रणाली के बीच स्पष्ट अंतर है। दीवानी कानून का उद्देश्य निजी अधिकारों की सुरक्षा और उनका समाधान है, जबकि आपराधिक कानून का उद्देश्य समाज और राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। परंतु जब पुलिस प्रशासन अथवा शिकायतकर्ता दीवानी विवादों को जबरन आपराधिक प्रकरण बना देते हैं, तो इससे न केवल आरोपी का मौलिक अधिकार प्रभावित होता है, बल्कि न्यायिक संसाधनों का दुरुपयोग भी होता है।


एफआईआर: एक न्यायिक औजार या वसूली का हथियार?

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी कि “हर रोज दीवानी मामलों को आपराधिक रंग देकर एफआईआर दर्ज की जा रही है” — दरअसल उस कड़वे सत्य को उद्घाटित करती है, जिसे अधिवक्ता समुदाय वर्षों से महसूस करता आ रहा है। विशेषतः व्यापारिक विवादों और धन वापसी के मामलों में पुलिसिंग का उपयोग वसूली के हथियार के रूप में किया जाने लगा है। आरोपियों पर IPC की धारा 406, 506 और 120-B जैसी गंभीर धाराएं लगाना आम बात हो गई है, जिससे दबाव बनाया जा सके।


पुलिस की जवाबदेही और सुप्रीम कोर्ट का निर्देश:

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट निर्देश दिया कि डीजीपी उत्तर प्रदेश एवं प्रासंगिक थाना प्रभारी को शपथ-पत्र (हलफनामा) दाखिल कर यह स्पष्ट करना होगा कि एफआईआर क्यों और कैसे दर्ज की गई। यह निर्देश एक साहसिक कदम है जो पुलिस प्रणाली को उसकी सीमा और जवाबदेही का स्मरण कराता है।


विधिक संतुलन और अधिवक्ता की भूमिका:

अधिवक्ताओं की जिम्मेदारी केवल अपने मुवक्किल की पैरवी तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की गरिमा और संतुलन बनाए रखने में भी होनी चाहिए। हमें हर उस प्रवृत्ति का विरोध करना चाहिए जो दीवानी विवादों को आपराधिक बनाने की कोशिश करे और पुलिस को एक पक्षीय हथियार के रूप में प्रयोग करे।


निष्कर्ष:

उत्तर प्रदेश में जो हो रहा है वह केवल एक राज्य की समस्या नहीं, बल्कि भारतीय न्यायिक प्रणाली के समक्ष खड़ा होता जा रहा एक मौन संकट है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय की स्पष्ट टिप्पणी समयोचित और आवश्यक है। अब आवश्यकता है कि अधिवक्ता, न्यायपालिका और पुलिस — तीनों अपनी मर्यादा की पुनर्स्थापना करें ताकि संविधान में निहित “कानून के समक्ष समानता” का सिद्धांत केवल कागज़ी न रह जाए।


(लेखक एक स्वतंत्र अधिवक्ता हैं और विधिक व सामाजिक विषयों पर नियमित लेखन करते हैं।)


Leave a comment

Design a site like this with WordPress.com
Get started