अब तक बंगाल में राष्ट्रपति शासन लग जाना चाहिए था!

— एक संवैधानिक और जनतांत्रिक विवेचना

जब एक राज्य बार-बार हिंसा, अराजकता और संविधान विरोधी गतिविधियों की आग में जलता हो, जब राज्य सरकार न केवल विफल हो बल्कि पक्षपाती और लाचार प्रतीत हो, तब संविधान का अनुच्छेद 356 केवल एक विकल्प नहीं—बल्कि एक आवश्यकता बन जाता है। पश्चिम बंगाल, विशेषकर मुर्शिदाबाद जैसी घटनाओं के बाद, आज उसी मोड़ पर खड़ा है जहाँ राष्ट्रपति शासन का लागू होना न केवल न्यायोचित है, बल्कि समय की मांग भी।


क्यों अब तक राष्ट्रपति शासन नहीं लगा?

यह सवाल केंद्र सरकार की मंशा और संवैधानिक समझ दोनों पर गंभीर प्रश्न उठाता है।
अनुच्छेद 356 के तहत यदि किसी राज्य में सरकार संविधान के अनुसार नहीं चल रही हो, तो राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। बंगाल की घटनाएं साफ दिखाती हैं:

  • कानून-व्यवस्था की स्थिति अत्यंत दयनीय है,
  • सांप्रदायिक हिंसा बार-बार होती है,
  • राज्य पुलिस पक्षपातपूर्ण ढंग से कार्य करती है,
  • और न्यायालयों को हस्तक्षेप कर अर्धसैनिक बल बुलाने पड़ते हैं।

तो फिर सवाल यह है—केंद्र सरकार किस बात का इंतजार कर रही है?


क्या राजनीतिक गणित संविधान से ऊपर हो गया है?

बंगाल में भाजपा ने पिछले चुनावों में अच्छी पकड़ बनाई थी। लेकिन 2024 के बाद बदले समीकरणों में पार्टी स्पष्ट रूप से मुस्लिम वोटों को लेकर ‘सॉफ्ट अप्रोच’ अपनाने लगी है।
कहीं इस नरमी के चलते ही मुर्शिदाबाद जैसी घटनाओं पर केंद्र सरकार चुप्पी साधे बैठी है?

अगर यही घटना किसी और राज्य में होती, जहां विपक्ष सत्ता में होता, तो क्या आज संसद में हंगामा नहीं मचता? क्या गृह मंत्रालय अब तक राष्ट्रपति शासन की संस्तुति नहीं करता?


न्यायपालिका को क्यों उठाना पड़ता है कदम?

जब राज्य और केंद्र दोनों असहाय या असंवेदनशील हो जाएं, तो न्यायपालिका ही अंतिम आशा बनती है। कलकत्ता हाईकोर्ट द्वारा BSF की तैनाती इसका उदाहरण है।
परंतु यह संविधान की आत्मा के लिए अपमानजनक है कि कार्यपालिका की जिम्मेदारी अब न्यायपालिका को निभानी पड़ रही है।


राष्ट्रपति शासन: अब अनिवार्य क्यों है?

  1. जन सुरक्षा की गारंटी: बंगाल के निर्दोष नागरिकों को केवल उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर निशाना बनाया जा रहा है।
  2. संविधान का सम्मान: अनुच्छेद 355 और 356 दोनों ही केंद्र सरकार को सशक्त बनाते हैं कि वह राज्य की व्यवस्था सुधार सके।
  3. राष्ट्रीय एकता की रक्षा: जब विदेशी तत्व, बांग्लादेशी घुसपैठिए और आतंकी मानसिकता वाले संगठन हिंसा को बढ़ावा दें, तो वह केवल राज्य का नहीं—राष्ट्र का प्रश्न बन जाता है।

निष्कर्ष: देर की तो अंधेर होगा

नरेन्द्र मोदी सरकार यदि इस स्थिति में भी निर्णय नहीं लेती, तो यह केवल राजनीतिक लापरवाही नहीं, बल्कि संवैधानिक अपराध के समकक्ष होगा।
राष्ट्रपति शासन अब एक कठोर निर्णय नहीं, बल्कि एक आवश्यक औषधि है।
केंद्र सरकार को तत्काल हस्तक्षेप कर बंगाल की जनता को न्याय, सुरक्षा और शांति प्रदान करनी चाहिए—वरना आने वाली पीढ़ियाँ इसे माफ नहीं करेंगी।


अब प्रश्न यह नहीं है कि राष्ट्रपति शासन लगाया जाए या नहीं—बल्कि यह है कि अब तक क्यों नहीं लगाया गया?


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