मुर्शिदाबाद हिंसा और नरेन्द्र सरकार की निष्क्रियता: एक अधिवक्ता की संवैधानिक दृष्टि

कटघरे में नरेन्द्र सरकार

लेखक:
अधिवक्ता : अमरेष यादव
दिल्ली हाई कोर्ट / सुप्रीम कोर्ट


प्रस्तावना:

मुर्शिदाबाद में हुई हिंसा ने न केवल मानवीय संवेदना को झकझोरा है, बल्कि यह भारत के संघीय ढांचे, संविधान और केंद्र-राज्य संबंधों पर भी गंभीर प्रश्नचिह्न छोड़ गई है। एक अधिवक्ता के नाते मेरा यह नैतिक और संवैधानिक कर्तव्य है कि मैं इस पूरे घटनाक्रम को न्याय, अधिकार और उत्तरदायित्व के तराजू पर तौलूं।


राज्य की संवैधानिक विफलता:

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 का प्रावधान तभी सक्रिय होता है जब किसी राज्य की शासन व्यवस्था संविधान के अनुरूप न चल रही हो।
मुर्शिदाबाद में जो हुआ, वह इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है—

  • पुलिस एवं प्रशासन की असहायता,
  • सैकड़ों परिवारों का पलायन,
  • धार्मिक उन्माद में घिरी भीड़ की खुलेआम हिंसा,
  • और अंततः न्यायपालिका द्वारा BSF तैनात करने का आदेश।

यह दर्शाता है कि राज्य सरकार की मशीनरी कानून व्यवस्था बनाए रखने में पूर्णतः विफल रही है।


केंद्र सरकार की दायित्वहीनता:

अनुच्छेद 355 के तहत केंद्र सरकार का यह संवैधानिक दायित्व है कि वह प्रत्येक राज्य को बाह्य और आंतरिक विघटन से सुरक्षित रखे।
लेकिन मुर्शिदाबाद की स्थिति में:

  • कोई त्वरित कार्रवाई नहीं हुई,
  • राष्ट्रपति शासन की पहल नहीं हुई,
  • NIA या गृह मंत्रालय ने कोई कठोर कदम नहीं उठाया,
  • और प्रधानमंत्री सहित पूरी केंद्रीय कार्यपालिका ने मौन धारण कर लिया।

यह निष्क्रियता केवल संवैधानिक असफलता नहीं, बल्कि एक राजनैतिक संवेदनहीनता है।


न्यायपालिका की भूमिका और आशा:

कलकत्ता हाईकोर्ट द्वारा हिंसा पर स्वतः संज्ञान लेते हुए अर्धसैनिक बलों की तैनाती का आदेश देना इस बात का संकेत है कि जब राज्य और केंद्र दोनों विफल हों, तब केवल न्यायपालिका ही अंतिम शरण बनती है।
परंतु एक अधिवक्ता होने के नाते यह सवाल भी खड़ा करना ज़रूरी है—क्या न्यायालयों को बार-बार कार्यपालिका की भूमिका निभाने को मजबूर किया जाना उचित है?


निष्कर्ष और अधिवक्ताओं का उत्तरदायित्व:

मुर्शिदाबाद की हिंसा के बहाने यह स्पष्ट हो गया है कि जब संविधान की रक्षा करने वाले मौन हो जाएं, तो अधिवक्ता ही संविधान की आत्मा को आवाज़ देते हैं।
अब समय आ गया है कि हम, अधिवक्ता समाज, इस विषय को सिर्फ अदालत तक सीमित न रखें, बल्कि जनचेतना के मंचों पर, सार्वजनिक विमर्शों में और लेखनी के माध्यम से इस विषय को उठाएं।


“हम सत्ता से नहीं डरते, हम संविधान की रक्षा की शपथ लेकर आए हैं। और जब कोई सरकार उस संविधान से विमुख हो जाए—तो अधिवक्ता की कलम तलवार से भी तीव्र हो जाती है।”


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