न्याय और गरिमा के पक्ष में एक निर्णायक हस्तक्षेप

छात्र आत्महत्याओं पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

— अधिवक्ता अमरेष यादव (सुप्रीम कोर्ट)


“क्या यह केवल एक और आत्महत्या है, या हमारे शिक्षण संस्थानों की मौन संरचनाएँ इसके लिए उत्तरदायी हैं?”
24 मार्च 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मौन प्रश्न को सुन लिया। उत्तर केवल संवेदना नहीं, बल्कि स्पष्ट आदेश था: “संस्थान अब जवाबदेह होंगे।”


मामले की पृष्ठभूमि

दिल्ली स्थित प्रतिष्ठित आईआईटी में दो अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के छात्रों की आत्महत्या के मामले में, परिजनों ने जातिगत भेदभाव और संस्थागत उपेक्षा के आरोप लगाए। सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशीय पीठ — न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन — ने इस घटना को भारत के शिक्षा तंत्र की एक बड़ी त्रासदी के रूप में देखा।


अदालत का निर्देश: दंड नहीं, पुनर्रचना करें

न्यायालय ने दिल्ली पुलिस को FIR दर्ज कर निष्पक्ष जांच करने का आदेश दिया। लेकिन उससे भी अधिक निर्णायक कदम था — नेशनल टास्क फोर्स का गठन, जो छात्रों की आत्महत्याओं की पृष्ठभूमि, कारणों और समाधान पर राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करेगा।

इस टास्क फोर्स का नेतृत्व करेंगे:
सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश श्री एस. रविंद्र भट
सदस्य होंगे – वरिष्ठ मनोचिकित्सक, शिक्षाविद, सामाजिक न्याय विशेषज्ञ, और विश्वविद्यालय प्रतिनिधि।


टास्क फोर्स की प्राथमिकताएँ

  1. मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा को समन्वित करना
  2. जातिगत भेदभाव के अनुभवों का व्यवस्थित मूल्यांकन
  3. संस्थागत जवाबदेही और निवारक उपायों की अनुशंसा
  4. सभी विश्वविद्यालयों में समान अवसर और गरिमा सुनिश्चित करना

अदालत की चेतावनी: यह केवल ‘डिप्रेशन’ नहीं

कोर्ट ने इस पर बल दिया कि आत्महत्याओं को मानसिक रोग कहकर टालना सामाजिक न्याय से पलायन है।

“जब भेदभाव दैनिक अनुभव बन जाए, तो मानसिक संकट व्यक्तिगत नहीं, संस्थागत होता है।”


विश्वविद्यालय: क्या केवल अकादमिक संस्थान हैं?

न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि विश्वविद्यालय महज अकादमिक स्थल नहीं, बल्कि न्याय, सम्मान और विविधता के प्रयोगशाला भी हैं। यदि Equal Opportunity Cells और Grievance Committees निष्क्रिय हैं, तो वे केवल दिखावे के ढांचे हैं — अब उन्हें प्रभावी बनाना संवैधानिक कर्तव्य है।


निष्कर्ष: शिक्षा और गरिमा एक साथ

यह आदेश छात्रों की आत्महत्याओं को सामाजिक संकट के रूप में स्वीकार करता है। यह संस्थानों को बताता है कि अब वे केवल शिक्षा के आंकड़ों से नहीं, बल्कि मानव गरिमा की रक्षा से भी आँके जाएंगे।
यह फैसला एक नई सोच की शुरुआत है — जहां शिक्षा, संवेदना और समानता साथ चलते हैं।


लेखक:
अधिवक्ता अमरेष यादव
(सुप्रीम कोर्ट, भारत)


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