UPPSC भर्ती घोटाला या राजनीतिक आरोप

CBI जांच का धीमापन और सत्ता की साया: क्या ये केवल एक राजनीतिक हथियार था?

– विशेष लेख | लेखक: एडवोकेट अमरेष यादव

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (UPPSC) के जरिए हुई PCS भर्तियों में 2012 से 2017 तक अनियमितताओं के आरोपों ने प्रदेश की राजनीति में न सिर्फ हलचल मचाई, बल्कि न्यायिक और जांच एजेंसियों की निष्पक्षता पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। विशेष रूप से 2013 से 2015 तक आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष अनिल यादव के कार्यकाल में, चयन प्रक्रिया पर लगे जातिगत पक्षपात के आरोप, और उसके बाद शुरू हुई लेकिन आज तक अधूरी पड़ी CBI जांच, इस पूरे प्रकरण को एक “राजनीतिक प्रतीक” में तब्दील कर चुकी है।


84 में 56 यादव: आंकड़ों की राजनीति या पक्षपात का प्रमाण?

इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा 2015 में अनिल यादव की नियुक्ति को असंवैधानिक ठहराए जाने के बाद, भर्ती प्रक्रियाओं पर सवाल उठने लगे। जनहित याचिकाओं में दावा किया गया कि PCS परीक्षाओं में चयनित 84 SDM में से 56 यादव समुदाय से थे। इस आंकड़े ने जातिगत समीकरणों से जूझते उत्तर प्रदेश में आग में घी का काम किया। समाजवादी पार्टी पर “अपनों को लाभ पहुंचाने” का आरोप लगाते हुए इसे “यूपी का व्यापम घोटाला” कहा गया।

लेकिन इस आरोप की सत्यता कभी आधिकारिक रूप से जांची ही नहीं गई। यदि ये आंकड़ा गलत था, तो सरकार या CBI इसे खारिज क्यों नहीं कर पाई? और यदि सही था, तो फिर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? दोनों ही स्थितियाँ, सत्ता की मंशा पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं।


CBI जांच: धीमेपन में छिपी रणनीति?

2017 में जब योगी आदित्यनाथ की सरकार बनी, तो इस मामले की जांच CBI को सौंपी गई। 2018 में FIR दर्ज हुई, 2019 में छापे पड़े, और 2020 में कुछ अधिकारियों को तलब भी किया गया। लेकिन इसके बाद से जैसे जांच ठंडी पड़ गई। 2022 में हाईकोर्ट ने CBI से स्थिति रिपोर्ट मांगी, लेकिन 2023 से 2025 तक कोई प्रगति सामने नहीं आई।

CBI की वेबसाइट पर इस मामले से संबंधित कोई सार्वजनिक निष्कर्ष या प्रेस विज्ञप्ति नहीं है। यह उस संस्था के लिए चिंताजनक है जिसे देश की सबसे सक्षम जांच एजेंसी माना जाता है। क्या यह केवल लटकाने की राजनीति थी?


सत्ता की साया और संस्थागत निष्क्रियता

CBI का इतिहास बताता है कि यह अक्सर सत्ताधारी दलों के प्रभाव में काम करने के आरोपों से घिरी रही है — फिर चाहे वो हवाला कांड हो, 2G स्पेक्ट्रम मामला हो या कोयला घोटाला। UPPSC मामला भी उसी श्रेणी में खड़ा नजर आता है।

2018 में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा CBI को वर्तमान UPPSC अध्यक्ष से पूछताछ से रोके जाने, और UPPSC द्वारा सहयोग न देने के आरोप, जांच को कमजोर करते हैं। क्या यह संस्थाओं की स्वायत्तता की हार नहीं?


राजनीति का औजार बनी जांच?

यह भी संभव है कि इस पूरे मामले को केवल एक चुनावी हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया हो। BJP ने 2017 में इसे प्रमुख मुद्दा बनाया, समाजवादी पार्टी की छवि को ठेस पहुंचाई, लेकिन सत्ता में आने के बाद जांच को अधूरा छोड़ दिया। न तो यादवों के पक्ष में कोई आधिकारिक क्लीन चिट दी गई, न ही दोषियों के खिलाफ कार्रवाई हुई। इससे एक संदेह पैदा होता है — क्या यह सारा तामझाम केवल सत्ता परिवर्तन का औजार था?


निष्कर्ष: जवाबदेही या जुमला?

UPPSC भर्ती मामला केवल एक घोटाले की कहानी नहीं, बल्कि एक केस स्टडी है — किस प्रकार सत्ता जांच एजेंसियों को अपने राजनीतिक एजेंडे के तहत इस्तेमाल करती है और फिर उन्हें ठंडे बस्ते में डाल देती है।

यदि 84 में 56 यादव चयनित हुए थे, और यदि यह जातिगत पक्षपात था, तो दोषियों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए थी। और यदि यह एक मिथ्या आरोप था, तो उसे खारिज कर समाज को स्पष्टता देनी चाहिए थी। लेकिन सात सालों में न तो न्याय मिला, न ही सत्य। यह लोकतंत्र की विडंबना नहीं तो और क्या है?


लेखक परिचय:
एडवोकेट मरेष यादव एक कानूनी विश्लेषक, सामाजिक मुद्दों पर लेखन करने वाले और संविधान आधारित राजनीति के पैनी दृष्टि से अध्येता हैं। वे दिल्ली में अधिवक्ता हैं और लोक प्रशासन व न्याय प्रणाली पर नियमित लेखन करते हैं।


Leave a comment

Design a site like this with WordPress.com
Get started