बेंच से बिचौलियों तक: किसके हाथों गिरवी है न्यायपालिका?

लेखक: अधिवक्ता अमरेष यादव, सुप्रीम कोर्ट
क्या आपने कभी सोचा है कि आपके देश की सबसे पवित्र संस्था — न्यायपालिका — भी कुछ ‘फिक्सरों’ के नियंत्रण में हो सकती है?
सुनकर हैरानी होती है, लेकिन यह कोई आम आदमी की शिकायत नहीं है। ये शब्द हैं भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई के, जिन्होंने साफ़ कहा:
“मैं चाहकर भी भारत की न्यायपालिका को सुधार नहीं सकता क्योंकि यह कुछ बड़े फिक्सरों के कब्जे में है।”
यह बयान अपने आप में एक राजनीतिक या कानूनी विस्फोट है।
कौन हैं ये फिक्सर?
ये वो लोग हैं जो न्यायपालिका के “दरवाजे” से नहीं, “पीछे के रास्ते” से आते हैं।
ये वकील नहीं होते, फिर भी केस की दिशा तय कर सकते हैं।
ये न्यायाधीश नहीं होते, फिर भी कौन-सी बेंच किस केस को सुनेगी, ये जानते हैं।
इनके पास होता है सत्ता का दबाव, पैसे की ताकत और अंदरूनी कनेक्शन।
जब न्याय बिकने लगे
जब जजों की नियुक्ति और ट्रांसफर लॉबिंग से तय होने लगे,
जब बड़ी कॉरपोरेट्स या राजनेता बेंच ‘फिक्स’ करने लगें,
और जब आम आदमी 10 साल तक सुनवाई की लाइन में खड़ा रहे
लेकिन रसूखदार को रातोंरात अंतरिम राहत मिल जाए —
तो सोचिए, किसके लिए है ये न्यायपालिका?
क्या ये लोकतंत्र की हार नहीं है?
एक वकील के तौर पर मैं जानता हूं कि कोर्ट में सच्चाई की लड़ाई आसान नहीं होती।
लेकिन जब उस लड़ाई में भी कोई “दलाल” खेल बिगाड़ने लगे —
तो वह न्याय नहीं, न्याय का अपमान होता है।
अब क्या किया जाए?
- जजों की नियुक्तियों में पारदर्शिता लाई जाए।
- हर हाई प्रोफाइल फैसले की प्रक्रिया जनता के सामने हो।
- फिक्सरों की पहचान कर उन पर कानूनी कार्रवाई हो।
- बार काउंसिल और वरिष्ठ वकील मिलकर न्याय प्रणाली को ‘फिक्सर मुक्त’ बनाएं।
एक सवाल आपसे:
क्या आप चाहते हैं कि आपके देश की अदालतें निष्पक्ष रहें,
या फिर बस रसूख वालों की ‘सुविधा-पालिका’ बनकर रह जाएं?
आपकी चुप्पी भी एक फैसला है।
लेखक: अधिवक्ता अमरेष यादव
सुप्रीम कोर्ट, भारत
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