संविधान कोई रणभूमि नहीं है: न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर एक अधिवक्ता की दृष्टि

लेखक: अधिवक्ता अमरेष  यादव

भारतीय संविधान एक पवित्र सामाजिक अनुबंध है — न कि संस्थाओं के बीच टकराव का अखाड़ा। परंतु हालिया समय में यह चिंता बढ़ रही है कि क्या न्यायपालिका अपनी सीमाएं लांघ रही है, विशेषकर जब वह उन मामलों में हस्तक्षेप करती है जहाँ कार्यपालिका या विधायिका चुप है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा दिए गए वक्तव्यों से यह बहस फिर ज़ोर पकड़ चुकी है। यह समय है गहराई से सोचने का, भावनाओं से नहीं, संविधान से।


न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) कोई अतिक्रमण नहीं

धनखड़ जी की चिंता इस बात को लेकर है कि न्यायपालिका “सुपर संसद” की तरह काम कर रही है। परंतु यह न्यायिक पुनरावलोकन की संकल्पना को गलत तरीके से प्रस्तुत करता है, जो संविधान के अनुच्छेद 13 में निहित है और केशवानंद भारती से मिनर्वा मिल्स तक के निर्णयों से परिभाषित की गई है।

जब न्यायपालिका कार्यपालिका की निष्क्रियता या विधायिका की विफलता पर संज्ञान लेती है, तो वह संविधान की रक्षा करती है, न कि सत्ता की लालसा में। यह शक्ति नहीं, बल्कि संवैधानिक कर्तव्य है।


अनुच्छेद 142 और न्याय का पूर्णता सिद्धांत

विवादों का एक बड़ा केंद्र अनुच्छेद 142 है, जिसके तहत सर्वोच्च न्यायालय “पूर्ण न्याय” कर सकता है। इसे “न्यायिक मिसाइल” कहा जाना अतिशयोक्ति है। यह शक्ति केवल असाधारण मामलों में, सीमित रूप से प्रयोग होती है।

भोपाल गैस कांड, अयोध्या, और पर्यावरण संबंधी मामलों में इस अनुच्छेद ने उन खाली स्थानों को भरा है जहाँ अन्य संस्थाएं असहाय या निष्क्रिय थीं। क्या न्याय को राजनीति की असहायता के कारण रोका जाना चाहिए?


निर्वाचित बनाम गैर-निर्वाचित: यह तुलना ही गलत है

यह कहना कि न्यायाधीश निर्वाचित नहीं होते इसलिए जवाबदेह नहीं हैं, एक खतरनाक सरलीकरण है। न्यायपालिका की वैधता चुनाव से नहीं, बल्कि संवैधानिक नैतिकता, निष्पक्षता और विवेक से आती है।

यदि सिर्फ चुनावी जनादेश से सत्ता तय हो, तो बहुसंख्यकवादी शासन अल्पसंख्यकों, पर्यावरण और असहमति की आवाज़ को कुचल सकता है। संविधान का मूल उद्देश्य ही सत्ता के दुरुपयोग को रोकना है, और न्यायपालिका उसका प्रहरी है।


जब संसद चुप हो, तो अदालत बोलती है

धनखड़ जी कहते हैं कि केवल राष्ट्रपति संविधान की रक्षा की शपथ लेते हैं, न्यायाधीश नहीं। परंतु यह एक जिम्मेदारी का विभाजन है, कोई श्रेणी नहीं। जब संसद निष्क्रिय हो जाए, तो न्यायपालिका का यह कर्तव्य है कि वह संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा करे।

यह कोई सत्ता हथियाने की कोशिश नहीं, बल्कि गणराज्य की आत्मा की रक्षा है। एक अधिवक्ता होने के नाते मैं जानता हूँ — वादकारी अदालत इसीलिए आता है क्योंकि अन्यत्र उसकी कोई सुनवाई नहीं होती।


वास्तविक खतरा: संस्थागत विश्वास का क्षरण

जब उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोग न्यायपालिका की सार्वजनिक निंदा करते हैं, तो वे केवल असहमति नहीं जताते — वे जनता के भरोसे को भी कमजोर करते हैं। आज भी न्यायपालिका वह संस्था है जिस पर देश की नैतिक उम्मीदें टिकी हैं। उस पर हमला लोकतंत्र की रीढ़ पर प्रहार है।

डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में चेतावनी दी थी कि जब संस्थाएँ अपने-अपने अधिकारों और सीमाओं को भूल जाती हैं, तो “अराजकता का व्याकरण” शुरू हो जाता है।


निष्कर्ष: यह समय है – संस्थाएं पुनः संतुलित हों, न कि टकराव में उलझें

न्यायपालिका भी त्रुटिहीन नहीं है — पर उसकी भूमिका संविधान की व्याख्या और उसकी रक्षा की है। उसे कमज़ोर करना, केवल अल्पकालिक राजनीति को साधने की कोशिश है। एक अधिवक्ता के रूप में मैं कहना चाहूँगा: हम न्यायपालिका की रक्षा करते हैं — इसलिए नहीं कि यह वकीलों का घर है, बल्कि इसलिए कि यह देश की आत्मा की आवाज़ है

कार्यपालिका शासन करे, संसद कानून बनाए — लेकिन अदालतें वही आवाज़ बनें जो तब गूंजती है, जब संविधान धीमे से कहता है — “न्याय होना चाहिए।”


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