“इस्लामाबाद का डबल‑स्पीक, दिल्ली का माइक्रोफोन”

— जब दुश्मन की स्क्रिप्ट हमारे ही टीवी स्टूडियो में गूंजती है


1. ISI की मंशा: भारत को धार्मिक दरार में तोड़ो

- कश्मीरी हमला हो या केरल रेल‑पटरी हादसा—नापाक मंसूबा हमेशा यही: हिंदू‑मुस्लिम विभाजन, घाव इतना गहरा कि भारत भीतर से खुल जाए।
- उनका प्रोपैगैंडा‑मेन्यू सीधा‑सादा: “अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक”, “सिक्योरिटी‑इस्यू = सिविल वॉर”।

2. ‘देसी’ रीमेक: माइक पकड़े एंकर व नोट्स पढ़ते नेता

नतीजा? वही ध्रुवीकरण, वही अविश्वास—जिसका ब्लूप्रिंट रावलपिंडी ने बनाया, उसे ब्लू‑जैकेट और भगवा‑पटका पहनाकर प्रसारित किया जा रहा।


3. मीडिया: बाइट‑साइज़ नेशनलिज़्म = ISI की सॉफ्ट‑पावर

  • फ़ैक्ट: हमला करने वाले दहशतगर्द लश्कर के, पीड़ित हर धर्म के।
  • हेडलाइन: “हिंदू तीर्थ‑यात्रियों पर इस्लामी आक्रमण!”
  • टॉक‑शो: “देश नहीं झुकने देंगे… लेकिन बोर्डर के उस पार से कौन शाबाशी देता है?”

ग़ौर कीजिए—जब टीवी स्क्रीन पर सारा दोष “एक धर्म” पर चिपकता है, तो लश्कर के कमांडर की नहीं, आईटीवी के एंकर की बाँछें खिलती हैं। ISI की सलाहकार‑फ़ीस बच जाती है; TRP‑बाज़ार उसका मुफ़्त काम कर देता है।


4. ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का निजीकरण = दुश्मन की लॉन्ग‑गेम

  • अग्निपथ से सेना की दीर्घकालीन रीढ़ कटी।
  • पीएसयू बिक्री से रक्षा‑सप्लाई चेन विदेशी हाथों में।
  • कॉरपोरेट‑लॉबी के इशारे पर पुरानी टेक्नॉलजी वाले जेट।

ISI सोचता था—“भारत अंदर से कमज़ोर हो”—यहाँ हुकूमत ने खुद आत्म‑कटौती योजना लागू कर दी; जैसा शत्रु चाह रहा था, वैसा ‘न्यू‑इंडिया’ का विनिवेश‑रोडमैप तैयार हो गया।


5. विपक्ष का म्यूट बटन = प्रोपैगैंडा का लाउडस्पीकर

जो भी पूछे—“भर्ती क्यों रुकी?”, “कच्चे सैनिक क्यों?”, “धर्म के आधार पर रिपोर्टिंग क्यों?”—उसे ‘टुकड़े‑टुकड़े गैंग’ का तमगा मिलता है। यही तो ISI की हसरत थी: लोकतांत्रिक बहस को “राष्ट्र‑विरोध” का स्टिग्मा लगाओ, ताकि समाज प्रश्न पूछना ही छोड़ दे।


निष्कर्ष: “दुश्मन की जुबान, अपनी आवाज़”

जब

  • स्टूडियो‑साउंड‑बाइट,
  • चुनावी‑हल्लाबोल,
  • और सरकारी प्रेसरूम

एक ही स्क्रिप्ट पर चलते हों—“डर पैदा करो, धर्म चिपकाओ, सवाल दबाओ”—तो फर्क कहाँ कि रिमोट कंट्रोल इस्लामाबाद में है या राजधानी के न्यूज‑ऑफ़िस में?

राष्ट्रवाद तब तक ढाल है जब तक वह तथ्य‑आधारित हो;
जैसे ही वह शोर‑आधारित हुआ, वह दुश्मन की तलवार बन जाता है—हमारे ही हाथों में।

यह लेख उन्हीं हाथों को आईना दिखाता है—क्योंकि अगर हम वही खेल खेलते रहे जिसे दुश्मन ने डिजाइन किया है, तो जीत‑हार की गिनती बॉर्डर पर नहीं, टीवी रेटिंग‑शीट पर होगी…और वहाँ ISI पहले से विजेता घोषित हो चुका है।

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