आतंकी को वकील चाहिए? ब्राह्मण लाइन में हैं!
लेखक: एडवोकेट अमरेष यादव


कल्पना कीजिए:
देश की राजधानी में आतंकियों की गिरफ्तारी होती है।
हर न्यूज़ चैनल ब्रेकिंग चला रहा है —
“देश में बड़ा आतंकी हमला टला”,
“दिल्ली पुलिस की बड़ी कामयाबी”,
“देश के दुश्मन पकड़े गए!”

एंकरों के चेहरे पर राष्ट्रभक्ति फूटी पड़ रही है।
पैनल पर बैठा हर विश्लेषक कह रहा है —
“इनको फांसी होनी चाहिए, अभी और इसी वक्त!”

लेकिन जैसे ही अगली सुबह होती है, खबर आती है —
“सुप्रीम कोर्ट में आतंकियों की तरफ से वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीमान फलां शुक्ला/मिश्रा/तिवारी पेश होंगे।”

बस, यहीं से असली स्क्रिप्ट शुरू होती है।
देश दहलाने की साजिश रचने वाला आतंकी
अब देश के सबसे तेज दिमागों से लैस संवैधानिक रक्षा कवच पहन लेता है।

और ये कवच किसने पहनाया?
संविधान प्रेम में लथपथ, गोत्र-विशेष के वरिष्ठ वकीलों ने।


जब कोई दलित छात्र खुदकुशी कर ले,
तो ये कहते हैं — “पढ़ाई का दबाव था।”
जब कोई मुस्लिम युवक मॉब लिंचिंग में मारा जाए,
तो ये कहते हैं — “भीड़ भावनाओं में बह गई।”
जब आदिवासी के घर को जलाया जाए,
तो ये कहते हैं — “जांच चल रही है, निष्कर्ष का इंतजार करें।”

लेकिन जैसे ही आतंकी पकड़ा जाए —
तो यकायक इन्हें संविधान याद आ जाता है,
मानवाधिकार जाग उठते हैं,
और सुप्रीम कोर्ट की दहलीज़ पर “संवैधानिकता के योद्धा” प्रकट हो जाते हैं।


और इन योद्धाओं की जाति पूछना अपराध है।
कहेंगे — “वकील की जाति मत देखो, योग्यता देखो।”
मानो योग्यता का सर्टिफिकेट जन्मपत्री से मिलता है!
हर हाई प्रोफाइल केस में, हर संवेदनशील याचिका में,
अगर हर बार वही चेहरे, वही जाति, वही लॉबी नजर आए —
तो ये सिर्फ संयोग नहीं, सवर्ण-संरचित व्यवस्था है।


लेकिन सबसे बड़ा व्यंग्य देखिए:
जब कोई बहुजन वकील किसी सामाजिक अन्याय के खिलाफ खड़ा होता है,
तो ये कहते हैं — “यह तो जातिवादी राजनीति कर रहा है!”
पर आतंकी का केस लड़ना “साहसिक संवैधानिक कार्य” बन जाता है?

क्या गज़ब का न्याय है —
संविधान की सारी धाराएं
सिर्फ आतंकियों और ब्राह्मण वकीलों के बीच फल-फूल रही हैं।


न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी है, लेकिन जाति पहचानने वाला रडार जरूर फिट है।
कोई ये नहीं पूछता कि आतंकी का धर्म क्या है —
क्योंकि “धर्म पूछना साम्प्रदायिकता है।”
लेकिन वकील की जाति पूछना —
“वर्णव्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह” बन जाता है।


अब ये मत पूछिए कि आतंकी का केस कौन लड़ेगा —
पूछिए कि क्यों हर बार वही लोग आगे आते हैं?
और जवाब मिलेगा —
“आतंकी का साथ, ब्राह्मण का विकास।”


समाप्त, पर विचार जारी है…
अगर आपको ये लेख चुभा है, तो समझिए —
न्याय का असली अर्थ अब भी बाकी है।


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