एक त्वरित टिप्पणी

जाति जनगणना: सामाजिक न्याय की दिशा में ऐतिहासिक निर्णय
लेखक: एडवोकेट अमरेष यादव, सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया
भूमिका
जब लोकतंत्र की बात होती है, तो हम जनसंख्या के आंकड़ों को सबसे बुनियादी जरूरत मानते हैं। लेकिन क्या हो जब इस जनसंख्या में सबसे बड़ी सामाजिक सच्चाई — जाति — को ही नजरअंदाज़ कर दिया जाए?
2025 में केंद्र सरकार द्वारा लिया गया निर्णय कि आगामी जनगणना में जातीय आंकड़ों को भी शामिल किया जाएगा, एक संवैधानिक, नैतिक और न्यायिक दृष्टिकोण से स्वागतयोग्य निर्णय है।
जाति आंकड़े क्यों जरूरी हैं?
जाति भारत की सामाजिक संरचना की वह हकीकत है जिसे नज़रअंदाज़ करना न तो यथार्थ है और न ही न्यायसंगत।
जब शिक्षा, रोजगार, राजनीति और सामाजिक योजनाएं जातिगत विषमताओं से प्रभावित हैं, तो नीतियाँ बनाते समय जाति आधारित आँकड़ों की अनुपस्थिति एक खतरनाक शून्य उत्पन्न करती है।
संवैधानिक परिप्रेक्ष्य
- अनुच्छेद 15(4) और 16(4) में पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान का अधिकार है,
लेकिन ‘पिछड़ा कौन’ यह जानने के लिए वैज्ञानिक आंकड़ों की जरूरत है। - इंदिरा साहनी वाद (1992) में सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार ज़ोर दिया कि आरक्षण जैसी योजनाओं का आधार ठोस सामाजिक और जातीय आंकड़े हों, अनुमान नहीं।
- जब धर्म, भाषा, लिंग और आय की गणना होती है, तो जाति को जानबूझकर जनगणना से बाहर रखना संविधान के समता के सिद्धांत के साथ अन्याय है।
2011 की भूल और 2025 की सुधार
2011 में सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC) की गई थी, लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया गया।
यह आंकड़े न तो नीति निर्धारण में आए और न ही न्यायपालिका के काम में।
2025 का निर्णय इस ऐतिहासिक गलती को सुधारने की दिशा में एक साहसिक पहल है।
जाति जनगणना के लाभ
- नीति निर्धारण: योजनाएं अब ‘अनुमान’ नहीं, डेटा-आधारित होंगी।
- सुप्रीम कोर्ट में वैधता: आरक्षण या प्रतिनिधित्व के मामलों में ठोस आधार प्रस्तुत किया जा सकेगा।
- वास्तविक प्रतिनिधित्व: संसदीय, शैक्षणिक और प्रशासनिक पदों पर अनुपातिक प्रतिनिधित्व की पहचान हो सकेगी।
- OBC की गिनती: अब तक OBC की कोई आधिकारिक जनसंख्या नहीं है, जो एक विडंबना है।
राजनीतिक विरोध और सामाजिक विडंबना
जो दल जातिगत ध्रुवीकरण से चुनाव जीतते हैं, वही जाति जनगणना का विरोध करते हैं।
वास्तविकता यह है कि जाति को मिटाने के लिए पहले उसे पहचानना जरूरी है।
जाति तब मिटेगी जब सबको समान अवसर और प्रतिनिधित्व मिलेगा — और वह बिना गणना के असंभव है।
निष्कर्ष
जाति जनगणना कोई “वोट बैंक की राजनीति” नहीं है — यह संवैधानिक उत्तरदायित्व और सामाजिक समानता की नींव है।
इस कदम से न केवल OBC, दलित, आदिवासी या पसमांदा समाज को बल मिलेगा, बल्कि भारत के लोकतंत्र की विश्वसनीयता और पारदर्शिता भी मजबूत होगी।
“बिना गणना के न्याय नहीं, और बिना जाति गणना के सामाजिक न्याय अधूरा है।”
लेखक परिचय:
एडवोकेट अमरेष यादव
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया | सामाजिक न्याय और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ अधिवक्ता
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