परशुराम: ब्राह्मणवाद की तलवार या धर्म का जल्लाद?

– अधिवक्ता अमरेष यादव

हिंदू धर्म के पौराणिक गलियारों में एक ऐसा नाम है जिसे ‘भगवान’ कहा जाता है, लेकिन जिसकी पूरी कथा खून से सनी हुई है — परशुराम

और यह भी कोई साधारण खून नहीं, बल्कि एक पूरी जाति — क्षत्रिय समाज — का सुनियोजित, सिलसिलेवार नरसंहार

सवाल उठता है कि —
क्या सिर्फ इसलिए किसी को पूजनीय मान लिया जाए क्योंकि उसने जाति के आधार पर हत्या की?

या यह पूजापाठ सिर्फ इसलिए है क्योंकि परशुराम, ब्राह्मण थे — और ब्राह्मणों ने अपने हितों के लिए नरसंहार को भी “धर्मयुद्ध” बना डाला?


जब नरसंहार धर्म बना दिया गया

परशुराम की महिमा गाई जाती है कि उन्होंने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से मुक्त किया।
जरा सोचिए — 21 बार संहार!
यह कौन-सा धर्म है जो एक पूरी जाति के संहार को पुण्य का काम मानता है?

इसका नाम इतिहास में अगर कोई गैर-ब्राह्मण करता, तो वह ‘दानव’ कहलाता। लेकिन परशुराम ने किया — तो वह ‘अवतार’ हो गया।


परशुराम: ब्राह्मणवाद के पालतू जल्लाद

यह कथा असल में एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि ब्राह्मणवादी राजनीतिक प्रोपेगेंडा है।
परशुराम का चरित्र एक ऐसे बर्बर ब्राह्मण का महिमामंडन करता है जो हथियार भी उठाता है, और हत्या को धर्म भी बताता है।
क्यों?
क्योंकि ब्राह्मणों को यह दिखाना था कि —
“बुद्धि भी हमारी, शक्ति भी हमारी, न्याय भी हमारा, और इतिहास भी हमारा।”

यही है परशुराम का असली ‘यज्ञ’ — जातीय सामूहिक हत्या को धार्मिक गौरव बनाना।


कहाँ हैं परशुराम की नैतिक उपलब्धियाँ?

क्या परशुराम ने कोई शिक्षा-व्यवस्था खड़ी की?
क्या उन्होंने किसी पीड़ित को न्याय दिलाया?
क्या उन्होंने समाज के वंचितों के लिए कुछ कहा?

नहीं।
उनकी कथा केवल पितृआज्ञा पर माँ की हत्या, क्रोध में संहार, और जातीय बदले की आग से भरी पड़ी है।

और इसके बावजूद उन्हें ‘भगवान’ कहा जाता है — क्योंकि ब्राह्मणों ने हत्या को भी पवित्र बना दिया, बस करने वाला ब्राह्मण होना चाहिए।


आज के भारत में परशुराम का नाम क्यों उछाला जा रहा है?

आज जब ओबीसी, दलित, वंचित, और बहुजन अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं,
तो परशुराम जैसे प्रतीक फिर से मंच पर लाए जा रहे हैं —
एक चेतावनी की तरह, एक धमकी की तरह
कि “अगर तुमने आवाज़ उठाई, तो परशुराम फिर आएगा।”


निष्कर्ष: यह पूजा नहीं, ब्राह्मणवादी नरसंहार का उत्सव है

परशुराम की स्तुति असल में ब्राह्मण शक्ति के घमंड की पूजा है,
जहाँ जाति के आधार पर की गई हत्या को भी ‘धर्म’ बना दिया जाता है।

यह स्तुति, एक खून से लथपथ सामंती चेतना का उत्सव है — जो आज भी दलित-बहुजन चेतना को दबाने का सपना देखती है।

पर अब यह सपना टूटेगा। परशुराम नहीं, अब बहुजन न्याय की राजनीति अवतार ले चुकी है।


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