अब वक्त है — सामाजिक न्याय से आगे बढ़कर संख्यात्मक न्याय की ओर बढ़ने का

लेखक: एडवोकेट अमरेष यादव


भारत में सामाजिक न्याय लंबे समय से आरक्षण की नींव रहा है। यह शब्द सदियों के जातीय भेदभाव और शोषण के विरुद्ध एक वैचारिक हथियार रहा है। लेकिन क्या अब यह अवधारणा अपने मकसद को पूरा कर पाई है? या फिर वक्त आ गया है कि हम इस विमर्श को संख्यात्मक न्याय की ओर मोड़ें—जहाँ प्रतिनिधित्व, अधिकार और अवसर आबादी के अनुपात में तय हों?

क्या सामाजिक न्याय अब पर्याप्त है?

सामाजिक न्याय का मूल उद्देश्य था—शोषित, वंचित और पिछड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाना।
लेकिन आज के भारत में, जब जातीय असमानता अब भी कायम है और प्रतिनिधित्व का असंतुलन साफ दिखता है, तब यह सवाल उठाना ज़रूरी है:
क्या सिर्फ “27% ओबीसी आरक्षण” 65% आबादी के लिए वाजिब है?

आंकड़े झूठ नहीं बोलते:

  • बिहार जाति जनगणना 2023:
    • ओबीसी + ईबीसी: 63.13%
    • एससी/एसटी: 21.3%
    • कुल वंचित आबादी: 84% से अधिक
  • आरक्षण व्यवस्था आज:
    • ओबीसी को: 27%
    • एससी को: 15%
    • एसटी को: 7.5%
    • ईडब्ल्यूएस (सवर्ण गरीब): 10%, जबकि उनकी कुल आबादी लगभग 10% ही है

यानी 10% आबादी को 10% आरक्षण, लेकिन 65% आबादी को सिर्फ 27%
क्या यह सामाजिक न्याय है या संख्या का अन्याय?

कटऑफ लिस्ट से सामने आती सच्चाई

UPSC, NEET, SSC जैसी परीक्षाओं में हर बार ओबीसी वर्ग की कटऑफ ईडब्ल्यूएस से ज़्यादा होती है
यह दर्शाता है कि ईडब्ल्यूएस को जो लाभ दिया जा रहा है, उसकी ज़रूरत उससे कहीं ज़्यादा ओबीसी वर्ग को है। फिर भी उन्हें सिर्फ एक सीलिंग लिमिट में बाँधकर रखा गया है।

संख्यात्मक न्याय क्यों जरूरी है?

1. लोकतंत्र की आत्मा — ‘प्रतिनिधित्व’

यदि लोकतंत्र जनता का शासन है, तो फिर यह सवाल उठना लाज़िमी है—

क्या संसद, न्यायपालिका, नौकरशाही और मीडिया में उस जनता का प्रतिनिधित्व है जिसकी संख्या सबसे अधिक है?

2. आरक्षण = संसाधनों तक पहुँच

आरक्षण केवल सरकारी नौकरी नहीं है, बल्कि यह शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक सशक्तिकरण और समाज में सम्मान की सीढ़ी है।
जब यह सीढ़ी किसी वर्ग को उसकी जनसंख्या से कम मिलती है, तो वह पीछे ही रह जाता है।

3. संविधानिक समर्थन

संविधान के अनुच्छेद 15(4), 16(4) और सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले इस बात को स्पष्ट करते हैं कि आरक्षण जनसंख्या और वंचना पर आधारित होना चाहिए

जाति जनगणना ही समाधान की पहली सीढ़ी है

जातिगत आंकड़े छुपाना उस सच को छुपाना है, जो वर्षों से गूंगे बहरे सिस्टम को चुनौती देता है।
बिहार की पहल से देश ने देखा कि हक मांगने का आधार सिर्फ भावना नहीं, अब आंकड़े भी हैं।
अब देशभर में यह मांग उठ रही है कि—

Representation proportionate to population” — यही असली लोकतंत्र है।

निष्कर्ष: अब बहस ‘कौन पिछड़ा है’ से आगे बढ़नी चाहिए — ‘कितना पिछड़ा और कितनी हिस्सेदारी’ तक

जब तक नीतियां यह स्वीकार नहीं करेंगी कि ज्यादा आबादी = ज्यादा प्रतिनिधित्व, तब तक यह आरक्षण व्यवस्था एक प्रतीकात्मक तुष्टिकरण भर बनी रहेगी।
सामाजिक न्याय अब अधूरा है — जब तक उसमें संख्यात्मक संतुलन नहीं जुड़ता।


अब फैसला आपके हाथ में है — क्या आप संख्यात्मक न्याय की आवाज़ बनेंगे?
क्या आप चाहते हैं कि आपके जैसे लोगों की संख्या सिर्फ वोट बैंक में नहीं, नीति निर्माण में भी दिखे?

कमेंट करें, शेयर करें, और इस बहस को जन-आंदोलन बनाएं।


Leave a comment

Design a site like this with WordPress.com
Get started