“हमले के बाद सौदा क्यों पक्का होता है? — एक नागरिक का संदेह”
लेखक: एडवोकेट अमरेष यादव


प्रस्तावना:

हम किसी भी देश की सुरक्षा को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। लेकिन क्या सुरक्षा और सौदेबाज़ी के बीच की रेखा धुंधली हो रही है?
हर बार जब देश पर आतंक का हमला होता है, जनता मातम में डूब जाती है, मीडिया ‘एक्शन की मांग’ करने लगता है — और सरकारें अरबों रुपये के रक्षा सौदे फ़ाइनल कर देती हैं।
यह ‘सुरक्षा नीति’ है या ‘रणनीतिक भावनात्मक दोहन’? यही है इस लेख का संदेह।


पहला संदेह: मुंबई हमला (26/11) और इज़राइल से रक्षा सौदे

26 नवंबर 2008 को देश पर हुआ सबसे बड़ा आतंकी हमला। देश दहशत में था, और अगली कुछ तिमाहियों में भारत इज़राइल का सबसे बड़ा रक्षा ग्राहक बन गया।

  • उन्नत निगरानी उपकरण
  • हार्डवेयर आधारित तटीय सुरक्षा
  • और भारत-इज़राइल रक्षा सहयोग में उछाल

सवाल: क्या यह सुरक्षा नीति का परिणाम था या इज़राइली रक्षा लॉबी का अवसर?


दूसरा संदेह: पुलवामा हमला (14 फरवरी 2019) और इमरजेंसी खरीद नीति

हमले के 60 दिनों के भीतर ही:

  • रक्षा बलों को ₹300 करोड़ की इमरजेंसी हथियार ख़रीदने की छूट
  • स्पाइक एंटी-टैंक मिसाइलें
  • तेज़ी से ‘संकट की घड़ी में एक्शन’ का नैरेटिव

सवाल: क्या पहले से लंबित सौदों को “शहीदों की आड़” में तेज़ी से पास किया गया?


तीसरा संदेह: पहलगाम हमला (22 अप्रैल 2025) और ₹63,000 करोड़ की डील

22 अप्रैल को हमला
28 अप्रैल को फ्रांस से:

  • 26 राफेल मरीन विमान
  • 3 स्कॉर्पीन पनडुब्बियाँ
  • एयर डिफेंस सिस्टम

केवल 6 दिन में इतनी भारी डील?
क्या फाइल पहले से तैयार थी?
या हमला डील साइन कराने का ‘जनसहानुभूति कवच’ बन गया?


संदेह की जड़ में क्या है?

  1. हर बार एक पैटर्न:
    • हमला
    • राष्ट्रवाद का उफान
    • सौदा
  2. सवाल पूछने पर मौन या विरोध:
    • कोई ऑडिट नहीं
    • पारदर्शिता नदारद
    • संसद में गंभीर बहस नहीं
  3. ‘रक्षा’ नाम की चादर में सब कुछ ढका:
    • दलाली पर कोई चर्चा नहीं
    • कीमतों पर कोई सार्वजनिक डेटा नहीं
    • ऑफसेट पार्टनर पर सवाल ‘देशद्रोह’ बन जाता है

निष्कर्ष: संदेह जायज़ है, जब जवाब गायब हैं

एक वकील होने के नाते मैं जानता हूँ कि “संदेह” को सबूत चाहिए होता है।
लेकिन जब हर आतंकी घटना के बाद भारी रक्षा डील फाइनल हो जाए,
जब हर सौदे की प्रक्रिया इतनी तेज़ हो जाए कि शहीदों की राख भी ठंडी न हुई हो,
तो ये संयोग नहीं, रणनीति लगती है।

यह लेख किसी देशभक्ति पर प्रश्न नहीं उठाता —
बल्कि उस ‘देशभक्ति की नकाब’ पर सवाल करता है, जिसके पीछे अरबों की डील होती है और दलाली चुपचाप चलती है।


लेखक परिचय:
एडवोकेट अमरेष यादव, Ran D Politics के संस्थापक, विधिक चिंतक और सामाजिक न्याय के पैरोकार हैं। उनका मानना है कि राष्ट्रवाद में विवेक और जवाबदेही सबसे बड़ा योगदान है।


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