प्यादे नहीं, सरगना को मारो

— जब न्याय को शॉर्टकट में बदल दिया गया

लेखक: एडवोकेट अमरेश यादव
श्रेणी: विधि | समाज | राजनीति

उत्तर प्रदेश की सड़कों पर जब किसी अपराधी के मारे जाने की खबर आती है, तो अक्सर सरकार इसे ‘कानून व्यवस्था की जीत’ बता देती है। लेकिन सच क्या यही है? असल में इन एनकाउंटरों की तह में जाएं, तो एक खतरनाक पैटर्न सामने आता है — सरगना बच जाता है, और प्यादा मारा जाता है।

कहानी हर जगह एक जैसी है

  • कोई बड़ा अपराध होता है—जैसे लूट, हत्या, डकैती।
  • गिरोह के एक या दो छोटे सदस्य पकड़े जाते हैं या ‘मुठभेड़’ में मार दिए जाते हैं।
  • पुलिस फाइल बंद कर देती है।
  • जनता को बताया जाता है कि ‘मुख्य आरोपी मारा गया’।
  • लेकिन असली मास्टरमाइंड—जो पूरे रैकेट का संचालन करता है—वो आराम से बच निकलता है।

क्या यही है कानून का राज?

मंगेश यादव की मुठभेड़: एक केस स्टडी

5 सितंबर 2024 को सुल्तानपुर में हुई करोड़ों की डकैती के बाद, पुलिस ने मंगेश यादव को एनकाउंटर में मार गिराया। लेकिन पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट ने साफ किया कि उसे नजदीक से गोली मारी गई थी—जो यह दर्शाता है कि उसे हिरासत में मारकर मुठभेड़ का रूप दिया गया।

मंगेश कोई बड़ा अपराधी नहीं था, बल्कि गिरोह का छोटा सदस्य था। पुलिस ने उसे मारकर केस खत्म कर दिया—पर सवाल ये है:
क्या सरगना तक पहुँचने की कोशिश की गई? क्या जांच की गई कि यह गिरोह किन रसूखदार लोगों से जुड़ा था?

स्रोत: Live Hindustan रिपोर्ट – अमिताभ ठाकुर की पोस्टमॉर्टम समीक्षा

सरगना तक क्यों नहीं पहुँचती पुलिस?

  1. राजनैतिक संरक्षण: कई गिरोह ऐसे नेताओं से जुड़े होते हैं जिनकी सत्ता में पकड़ मजबूत होती है।
  2. पुलिस पर दबाव: केस जल्दी बंद करो, मीडिया का शोर थामो, आंकड़े बढ़ाओ।
  3. जातिगत और वर्गीय चयन: कमजोर वर्गों के लोगों को निशाना बनाना आसान होता है; प्रतिरोध की संभावना कम होती है।

“प्यादे नहीं, सरगना को मारो” का क्या मतलब है?

इसका मतलब है कि—

  • कानून का निशाना उनपर हो जो असली अपराध के मास्टरमाइंड हैं।
  • उन पर नहीं जो उनकी योजना का सिर्फ छोटा हिस्सा हैं।
  • जांच इतनी गहरी हो कि सत्ता के गलियारों तक पहुंचे।
  • और न्याय इतना ईमानदार हो कि किसी का जाति, धर्म, पैसा या रसूख उसे बचा न सके।

एनकाउंटर संस्कृति से न्याय नहीं मिलता, भ्रम फैलता है

एनकाउंटर कोई समाधान नहीं है। अगर माफिया का चेहरा जिंदा रहता है और प्यादे मार दिए जाते हैं, तो अगली बार वो फिर किसी और को प्यादा बना लेता है। असली अपराधियों को सजा तभी मिलेगी जब व्यवस्था की मंशा बदलेंगी


निष्कर्ष: न्याय का मूल मंत्र—जो सबसे ऊपर है, वही सबसे पहले निशाने पर हो

अगर पुलिस और सरकार वाकई अपराध के खिलाफ गंभीर हैं, तो उन्हें प्यादे नहीं, सरगना को मारना या पकड़ना चाहिए।
फर्जी मुठभेड़ों से केवल एक संदेश जाता है—कि इस सिस्टम में ताकतवर अपराधी नहीं, बल्कि कमजोर नागरिक मारे जाते हैं।

“प्यादे नहीं, सरगना को मारो”—यह सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि न्याय का आधार होना चाहिए।


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