जब संविधान जला, तो सुप्रीम कोर्ट क्यों चुप रहा? सवर्णवाद की अदालत या लोकतंत्र का रक्षक?

लेखक: एडवोकेट अमरेष यादव
“संविधान को न मानना देशद्रोह है — यही सरकार और अदालतें हमें नागरिकता के मामलों में सिखाती हैं। लेकिन जब राजधानी में खुलेआम संविधान जलाया गया, तो सर्वोच्च न्यायालय ने आँखें क्यों मूँद लीं?”
घटना का सच: संविधान को जलाया गया, भारत को चुनौती दी गई
9 अगस्त 2018 को दिल्ली के जंतर मंतर पर आरक्षण विरोधी पार्टी और आज़ाद सेना के कार्यकर्ताओं ने भारतीय संविधान की प्रतियां जलाईं, डॉ. अंबेडकर को गालियाँ दीं, और SC/ST Act के खिलाफ अपमानजनक नारे लगाए। यह सब वीडियो में रिकॉर्ड हुआ, सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, और देश भर में दलित-बहुजन समाज आहत हुआ।
दिल्ली पुलिस ने FIR दर्ज की, IPC की विभिन्न धाराओं के तहत केस बना और चार साल बाद 2022 में दो अभियुक्तों पर मुकदमा चलाने की मंज़ूरी दी गई। लेकिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय, जिसे संविधान का रक्षक माना जाता है—ने कोई स्वतः संज्ञान नहीं लिया। कोई सार्वजनिक टिप्पणी नहीं, कोई कार्रवाई नहीं।
प्रश्न 1: क्या संविधान जलाना “देशद्रोह” नहीं है?
भारत सरकार ने 2019 के नागरिकता संशोधन कानून (CAA) और NRC में स्पष्ट किया है कि जो व्यक्ति संविधान को नहीं मानता, वह भारत की नागरिकता का अधिकारी नहीं हो सकता।
केस रेफरेंस:
- Ministry of Home Affairs Guidelines (Citizenship Rules 2009): इसमें उल्लेख है कि किसी व्यक्ति को भारत का नागरिक तभी माना जाएगा जब वह संविधान के प्रति “सच्ची श्रद्धा और निष्ठा” रखे।
- फॉर्म-III, Citizenship by Registration: इसमें “I do solemnly affirm that I will bear true faith and allegiance to the Constitution of India as by law established…” की शपथ अनिवार्य है।
तो क्या जो लोग संविधान जला रहे हैं, वे भारत की नागरिकता के भी अधिकारी नहीं हैं? अगर नहीं, तो क्या सरकार और न्यायपालिका ने उनकी नागरिकता समाप्त की? नहीं।
प्रश्न 2: सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्वतः संज्ञान क्यों नहीं लिया?
सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में स्वतः संज्ञान (Suo Motu) लिया है:
- 2012 निर्भया केस: दिल्ली गैंगरेप मामले में स्वतः संज्ञान।
- प्रदूषण पर कई बार आदेश, दिल्ली के पराली जलाने पर।
- कोविड-19 में प्रवासी मज़दूरों की हालत पर स्वतः संज्ञान।
लेकिन जब संविधान जला—जो कि लोकतंत्र पर सीधा हमला था—तो अदालत चुप रही। क्यों?
क्या यह इसलिए कि आरोपी सवर्ण जातियों से थे?
प्रश्न 3: क्या न्यायपालिका सवर्ण लॉबी का गढ़ बन चुकी है?
सच्चाई: भारत के उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में 90% से अधिक जज सवर्ण जातियों से आते हैं। (स्रोत: कई सामाजिक अध्ययन व जस्टिस काटजू की टिप्पणियाँ)
- क्या यही कारण है कि जब संविधान को जलाया गया, डॉ. अंबेडकर को गालियाँ दी गईं, तब कोर्ट ने इसे “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” मानकर नज़रअंदाज़ कर दिया?
- क्या यदि यही काम किसी मुसलमान या दलित समूह ने किया होता, तो उन्हें राष्ट्रद्रोही, अर्बन नक्सल, या गद्दार कहकर जेल में नहीं डाला जाता?
प्रश्न 4: अगर कुरान या गीता जलाई जाती, तो क्या कोर्ट चुप रहता?
क्या आपने कभी देखा है कि धार्मिक ग्रंथों के अपमान पर अदालतों ने कितनी सख्ती से काम किया है?
- कुरान या गीता जलाने पर IPC की धारा 295A (धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाना) तुरंत लागू होती है।
- लेकिन संविधान, जो भारत का सर्वोच्च ग्रंथ है—उसके अपमान पर अदालत की चुप्पी क्या इस दोहरे मापदंड का प्रमाण नहीं?
एक वकील के सवाल सुप्रीम कोर्ट से:
- क्या संविधान जलाना देशद्रोह नहीं?
- क्या सुप्रीम कोर्ट को अपनी चुप्पी पर आत्मनिरीक्षण नहीं करना चाहिए?
- क्या उच्च न्यायपालिका में जातिवादी पूर्वाग्रह हैं, जो सवर्णों को बचाते हैं?
- क्या सुप्रीम कोर्ट अब केवल अभिजात्य वर्ग का संरक्षणकर्ता बन गया है?
निष्कर्ष: जब संविधान जला, सुप्रीम कोर्ट भी राख हुआ
2018 में संविधान जला था, और 2025 तक भी उसके अपराधियों को कोई सजा नहीं मिली। यह केवल पुलिस या सरकार की नाकामी नहीं है—यह सर्वोच्च न्यायपालिका की संवैधानिक विश्वासघात की कहानी है।
जो अदालत हर बात पर स्वतः संज्ञान लेती है, वह तब चुप रही जब उसके अस्तित्व का आधार जलाया गया। यह चुप्पी न्याय नहीं—जातिवादी पक्षपात की स्याही में डूबी सहमति है।
यदि संविधान को जलाना अपराध नहीं, तो फिर देशभक्ति का पैमाना केवल मुसलमान, दलित और आदिवासी के लिए क्यों तय होता है?
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