न्यायपालिका में नया इतिहास: जब ‘जय भीम’ गूंजा सुप्रीम कोर्ट में

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की ऐतिहासिक नियुक्ति पर अधिवक्ता अमरेष यादव की विशेष टिप्पणी
“यह केवल एक न्यायाधीश की पदोन्नति नहीं, संविधान की आत्मा का पुनर्जागरण है।”
– Advocate Amaresh Yadav, Supreme Court of India
एक ऐतिहासिक क्षण: भारत के पहले बौद्ध मुख्य न्यायाधीश
न्यायमूर्ति भूषण रामकृष्ण गवई का भारत के 52वें मुख्य न्यायाधीश (CJI) के रूप में शपथ लेना, भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में सामाजिक न्याय और प्रतिनिधित्व की दिशा में एक मील का पत्थर है। वे पहले बौद्ध और केवल दूसरे अनुसूचित जाति समुदाय से आने वाले न्यायाधीश हैं जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय की यह सर्वोच्च जिम्मेदारी सौंपी गई है।
उनका जीवन-संघर्ष और सफलता उन करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा है, जो हाशिए से मुख्यधारा तक पहुंचने का सपना देखते हैं।
न्यायमूर्ति गवई: न्याय, जनप्रतिनिधित्व और संवैधानिक प्रतिबद्धता का प्रतीक
- गवई साहब ने अब तक 700 से अधिक पीठों में बैठकर लगभग 300 फैसले दिए हैं।
- वे अनुच्छेद 370, नोटबंदी, और इलेक्टोरल बॉन्ड्स जैसे ऐतिहासिक मामलों की सुनवाई में शामिल रहे हैं।
- उन्होंने न्यायपालिका में राजनीतिक प्रभाव की चेतावनी दी और न्यायाधीशों की स्वतंत्रता और गरिमा की खुलकर वकालत की।
शपथ लेने के बाद अपनी मां के चरण स्पर्श करना और अधिवक्ताओं को “जय भीम” कहकर अभिवादन देना, उनके न्यायिक दृष्टिकोण को सामाजिक चेतना से जोड़ता है। यह केवल संस्कार नहीं, विचारधारा का साहसिक सार्वजनिक प्रदर्शन है।
अंबेडकरवादी न्यायशास्त्र की पुनर्पुष्टि
न्यायमूर्ति गवई ने अपने कार्यकाल की शुरुआत में ही कहा कि वे डॉ. भीमराव अंबेडकर के दिखाए रास्ते पर चलकर सामाजिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में काम करेंगे। यह वक्तव्य सिर्फ औपचारिक नहीं है, यह देश के दलित, बहुजन, वंचित और शोषित वर्गों के लिए न्यायपालिका में उम्मीद की एक नई किरण है।
विचारकों और कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रियाएं
- डॉ. सूरज येंगड़े (दलित चिंतक और लेखक) ने इसे न्यायपालिका में बहुजन प्रतिनिधित्व की दिशा में एक साहसिक कदम बताया।
- लेनिन रघुवंशी जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ता इसे सामाजिक न्याय की जमीन पर ‘संवैधानिक पुनर्जागरण’ मानते हैं।
इन दोनों का मानना है कि अब समय है कि न्यायपालिका केवल निष्पक्ष न हो, बल्कि सामाजिक रूप से उत्तरदायी भी हो।
विधिक विकेंद्रीकरण की सोच
कोल्हापुर, सांगली, सतारा जैसे स्थानों में हाईकोर्ट की बेंच की माँग को लेकर उन्होंने समर्थन दिया, जिससे स्पष्ट होता है कि वे न्याय को आम आदमी के करीब लाना चाहते हैं। यही वह सोच है जो आज देश को चाहिए — केंद्रीकृत नहीं, सहभागी न्याय व्यवस्था।
निष्कर्ष: एक नई सुबह, एक नया दृष्टिकोण
न्यायमूर्ति गवई का कार्यकाल भले ही छोटा हो, लेकिन इसका प्रभाव स्थायी रहेगा। यह नियुक्ति एक प्रेरक प्रसंग है — न केवल उन छात्रों और वकीलों के लिए जो कठिनाइयों के बावजूद न्यायपालिका में योगदान देना चाहते हैं, बल्कि उन तमाम नागरिकों के लिए भी जो भारत को वास्तव में समावेशी गणराज्य के रूप में देखना चाहते हैं।
जय भीम। जय संविधान।
– अधिवक्ता अमरेष यादव
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया
9415376546
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