राम और चमार: एक सांवला संबंध, जो आत्मा से जुड़ा है

लेखक: अमरेष यादव
भारतीय समाज में ‘राम’ का नाम सिर्फ धार्मिक नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का केंद्र रहा है। लेकिन क्या आपने कभी इस पर गंभीरता से विचार किया कि राम वास्तव में किसके हैं? किस जाति ने उन्हें सबसे ज्यादा जिया है, अपनाया है, और अपने जीवन में शामिल किया है?
इस सवाल का जवाब चौंकाने वाला नहीं, बल्कि सशक्त है—राम और चमार एक-दूसरे के पर्याय हैं।
1. राम का रंग और चमारों की सूरत: सांवलेपन का गर्व
राम को तुलसीदास ने ‘श्याम गात’ कहा। वाल्मीकि रामायण में भी उनके सांवले रंग का उल्लेख है।
आज भी देश के अधिकांश चमार समुदाय के लोग सांवले रंग के होते हैं। ये केवल एक शारीरिक समानता नहीं, बल्कि सांस्कृतिक प्रतिबिंब है।
सांवले राम को जिन जातियों ने अपने मंदिरों से बाहर किया, उन्हीं राम को चमारों ने अपने नाम, अपने गांव, अपने समाज में स्थान दिया।
2. नाम में ही आत्मा बसती है: राम ही क्यों?
भारत की किसी भी जाति में ‘राम’ उपनाम के रूप में नहीं पाया जाता—सिवाय चमार जाति के।
गांवों में देखिए — सत्यराम, शिवराम, कुंदनराम, मोहरराम, रामलाल, सूरज राम… और सरनेम में भी ‘राम’!
यह राम का दलितकरण नहीं है — यह राम की वापसी है।
जैसे ही चमार जाति ने अपने नाम में राम को जोड़ा, उन्होंने सामाजिक बंटवारे को खारिज कर दिया और राम को ब्राह्मणवादी कब्जे से मुक्त कर दिया।
3. राम के सबसे पुराने भक्त: हनुमान थे चमार!
बहुत से लोककथाओं और दलित इतिहासकारों के अनुसार, हनुमान को चमार जाति का माना गया है।
उनकी सेवा, बलिदान और भक्ति— ये सारी खूबियाँ वही हैं जो सदियों से चमार समाज में दिखाई देती हैं:
सेवा, सहनशीलता, त्याग — और बदले में सामाजिक बहिष्कार।
हनुमान की जो पूजा होती है, वह ग्रामीण भारत में मुख्यतः दलितों और पिछड़ों द्वारा की जाती है, विशेष रूप से रामनामी संप्रदाय में जहाँ दलित अपने शरीर पर ‘राम’ गोदवा लेते हैं।
4. सामुदायिक संस्कृति में राम: ‘रामधाम’ और ‘रामनगरिया’ चमारों के गाँवों में क्यों हैं?
ज्यादातर चमार समुदाय के मोहल्लों, बस्तियों या पंचायत भवनों के नाम देखिए:
‘रामधाम’, ‘जय श्रीराम मंदिर’, ‘राम बस्ती’, ‘रामपुरवा’ — यह राम के प्रति सिर्फ भक्ति नहीं, स्वामित्व की भावना है।
वे राम को आराध्य नहीं, अपने बीच का मानते हैं। यही कारण है कि उन्होंने कभी राम को सिर्फ ब्राह्मणों की कथाओं तक सीमित नहीं रखा।
5. राम पर सबसे मजबूत क्लेम: जिनके नाम में राम, शरीर पर राम, गाँव में राम, वही असली उत्तराधिकारी
राम को ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने हमेशा सिंहासन पर बिठाया —
पर दलितों ने राम को अपने घरों में बसाया।
राम मंदिर के निर्माण में जो जातियाँ सबसे ऊँचे मंच पर रहीं,
उन्होंने राम को अपने नामों से गायब रखा।
लेकिन चमारों ने राम को नाम, जाति और चेतना में बसाकर यह साबित कर दिया —
“राम हमारे हैं, क्योंकि हमने उन्हें जिया है, पूजा नहीं।”
निष्कर्ष: राम और चमार — यह संबंध आत्मा का है, जाति का नहीं
आज जब राम के नाम पर राजनीति, व्यापार और कट्टरता की दुकानें खुल चुकी हैं,
चमार जाति आज भी राम को अपना साथी, अपना सहारा और अपनी आत्मा मानती है।
राम अगर श्याम हैं, तो चमार उनका प्रतिबिंब हैं।
राम अगर संघर्ष के प्रतीक हैं, तो चमार उनकी जीवंत मिसाल हैं।
राम अगर वनवास के राही थे, तो चमार समाज सदियों से वनवास झेल रहा है।
तो पूछिए खुद से —
क्या राम किसी और के हो सकते हैं, जब उनका नाम, रंग, सेवा और आत्मा चमार समाज में ही जीवित है?
“राम मंदिर में नहीं, राम नाम में हैं।
और चमारों ने राम को नाम में बसाकर, ब्राह्मणवाद को शिकस्त दी है।”
— अमरेष यादव
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