राम पर अधिकार का आंदोलन

जब ‘राम’ नाम बन गया प्रतिरोध: रामनामी संप्रदाय और चमार आत्मा की पुकार
लेखक: अमरेष यादव
भारत में मंदिरों के दरवाज़े अक्सर भक्ति के लिए कम और जाति के लिए ज़्यादा खुले रहे हैं। हजारों वर्षों की भक्ति और सेवा के बावजूद जब चमार और अन्य दलित समुदायों को मंदिरों से, मूर्तियों से, और पुरोहितों से दूर रखा गया, तब उन्होंने ईश्वर को बाहर नहीं, अपने भीतर तलाशना शुरू किया।
इस आत्मिक विद्रोह से जन्मा एक असाधारण संप्रदाय—रामनामी संप्रदाय।
यह कोई परंपरागत संप्रदाय नहीं था। यह एक संविधान था उस पीड़ा का, जो भक्ति से शुरू हुई और आत्म-सम्मान की चट्टान बन गई।
राम का नाम, लेकिन शरीर पर क्यों?
छत्तीसगढ़ के चमार समुदाय के बुजुर्गों ने जब देखा कि मंदिरों में राम के दर्शन पर भी जाति की मुहर लगी है, तब उन्होंने अपने पूरे शरीर पर ‘राम’ गोदवा लिया।
सिर से लेकर पाँव तक, पीठ से लेकर हथेली तक—हर जगह केवल राम।
यह गोदना कोई धार्मिक रस्म नहीं था, यह था सामाजिक ऐलान—
“जब तुमने हमें राम से दूर किया, हमने राम को खुद में बसा लिया।”
चमार क्यों बने रामनामी संप्रदाय की आत्मा?
- क्योंकि वे सदियों से सबसे अधिक अपमानित हुए थे।
- क्योंकि उन्होंने सबसे ज़्यादा भक्ति की, लेकिन सबसे कम स्वीकृति पाई।
- क्योंकि उन्होंने कभी धर्म नहीं छोड़ा, लेकिन धर्म ने उन्हें बार-बार धक्का दिया।
चमार समुदाय ने रामनामी संप्रदाय को सिर्फ अपनाया नहीं, उसे जिया, उसे जिया और उससे समाज को झकझोरा।
उनके गाँवों के नाम ‘रामपुरवा’, ‘रामनगर’, ‘रामधाम’ होते चले गए।
उनके बच्चों के नाम ‘सत्यराम’, ‘मोहरराम’, ‘दीनराम’ और यहां तक कि सरनेम में भी ‘राम’ — यह कोई संयोग नहीं था, यह प्रतिरोध की परंपरा थी।
रामनामी: भक्ति या विद्रोह? या दोनों?
रामनामी कोई अंधभक्ति का संप्रदाय नहीं है।
यह एक सोच है — “जब ईश्वर को पाने के लिए जाति आड़े आए, तो ईश्वर को अपने भीतर लाओ।”
वे मंदिर नहीं बनाते। वे मूर्तियों की पूजा नहीं करते।
वे किसी ब्राह्मण पुरोहित को नहीं बुलाते।
वे सिर्फ राम नाम जपते हैं — और उसे शरीर पर अंकित कर देते हैं।
भक्ति और बग़ावत का ऐसा संगम भारत के इतिहास में दुर्लभ है।
क्या राम सिर्फ ब्राह्मणों के थे?
राम को ब्राह्मणवाद ने हमेशा सिंहासन पर बैठाकर ऊँचा दिखाया,
लेकिन चमारों ने उन्हें समानता की ज़मीन पर उतार कर अपना बना लिया।
राम अगर श्याम वर्ण के थे,
तो वही रंग चमार समाज के बहुसंख्यक लोगों का भी है।
राम को वनवास मिला, चमार समाज तो सदियों से सामाजिक वनवास झेल रहा है।
राम के सबसे बड़े भक्त हनुमान कहे गए —
और दलित इतिहासकारों ने हनुमान को भी चमार जाति का बताया है।
तो फिर सवाल बनता है —
“राम पर असली हक किसका है?”
जिसने राम को पूजा, या जिसने राम को जिया?
रामनामी संप्रदाय: आज भी ज़िंदा है वो आग
आज भी छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण इलाकों में
हज़ारों दलित रामनामी हैं।
वे राम के नाम की कमीज़ पहनते हैं, ‘राम’ लिखा हुआ साफा बांधते हैं,
और साल में एक बार पूरे देश के रामनामी एकत्र होकर ‘राम’ को याद नहीं, ‘राम’ को जीते हैं।
निष्कर्ष: राम को शरीर पर लिख देना — यह भक्ति नहीं, ऐलान है
रामनामी संप्रदाय एक धार्मिक विचार नहीं,
बल्कि भारत के जातिगत अन्याय पर सबसे शांत लेकिन सबसे ताकतवर उत्तर है।
राम मंदिर का द्वार भले ही बंद हो,
लेकिन रामनामी का शरीर खुली किताब है —
जिस पर लिखा है, “हमने राम को नहीं पाया,
राम ने हमें पा लिया।”
— अमरेष यादव
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