प्रजनन न्याय की एकतरफा व्याख्या: क्या गर्भपात के निर्णयों में पुरुष का कोई अधिकार नहीं?
लेखक: एडवोकेट अमरेष यादव, सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया

परिचय
भारतीय विधि प्रणाली में गर्भपात को लेकर महिला की स्वायत्तता को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। Medical Termination of Pregnancy Act, 1971 (संशोधित 2021 में) के तहत महिला को यह वैधानिक अधिकार प्राप्त है कि वह चिकित्सकीय परिस्थितियों में गर्भपात करवा सकती है — चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित।
यह विधिक ढांचा नारी की शारीरिक स्वायत्तता, निजता और गरिमा को केंद्र में रखता है। यह मानवीय दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण और आवश्यक भी है।
परंतु जब हम न्याय की व्यापक परिभाषा और न्यायिक तटस्थता की बात करते हैं, तो एक महत्वपूर्ण पक्ष — पुरुष का भावनात्मक, सामाजिक और कानूनी हित — पूरी तरह से अनुपस्थित नज़र आता है। क्या यही प्रजनन “न्याय” है, या यह एक नई तरह का प्रजनन अन्याय है?
1. भारतीय कानून: महिला केंद्रित, पुरुष शून्य
MTP अधिनियम की धारा 3 में स्पष्ट किया गया है कि गर्भपात के लिए केवल महिला की लिखित सहमति पर्याप्त है।
पति, लिव-इन पार्टनर या संभावित पिता की कोई सहमति आवश्यक नहीं है।
यह नियम विशेष परिस्थितियों में महिला की रक्षा के लिए अत्यंत जरूरी है — जैसे कि बलात्कार, घरेलू हिंसा, या सामाजिक दबाव। लेकिन जब यही सिद्धांत सभी प्रकार के संबंधों पर समान रूप से लागू होता है — तब यह न्याय के उस बुनियादी सिद्धांत का उल्लंघन करता है जो सभी पक्षों की सुनवाई और न्यायिक संतुलन की बात करता है।
2. न्यायिक रुख — निजता बनाम पारिवारिक उत्तरदायित्व
सुप्रीम कोर्ट ने X v. Principal Secretary, NCT of Delhi (2022) में माना कि अविवाहित महिलाओं को भी 24 सप्ताह तक गर्भपात का समान अधिकार है जैसा विवाहित महिलाओं को है।
यह निर्णय Article 21 (निजता और गरिमा का अधिकार) के आलोक में ऐतिहासिक है।
किन्तु, इस निर्णय में कहीं भी यह विचार नहीं किया गया कि
- यदि महिला गर्भपात न कर बच्चे को जन्म दे,
- तो संभावित पिता को बिना सहमति के भरण-पोषण के लिए बाध्य किया जा सकता है।
- लेकिन यदि महिला गर्भपात करा ले, तो उस निर्णय में पुरुष की कोई भूमिका नहीं होगी।
यहाँ एक कानूनी विरोधाभास उत्पन्न होता है:
फैसले में भागीदारी नहीं, फिर भी दायित्व में सम्मिलित?
3. तुलनात्मक दृष्टिकोण: अन्य देशों में क्या है?
- जर्मनी में गर्भपात से पहले पुरुष साथी को जानकारी देना अनिवार्य नहीं है, लेकिन यदि संबंध विवाह या सहमति पर आधारित हो, तो परामर्श सत्र में पुरुष को आमंत्रित किया जाता है।
- स्वीडन और फिनलैंड जैसे देशों में गर्भपात का निर्णय महिला का ही होता है, लेकिन सामाजिक परामर्श व्यवस्था ऐसी है जो संभावित पिता की भावनात्मक भूमिका को मान्यता देती है।
- अमेरिका में Planned Parenthood v. Casey (1992) के तहत यह साफ कहा गया कि पुरुष की सहमति आवश्यक नहीं, लेकिन न्यायमूर्ति स्कालिया ने अपने असहमति वाले मत में लिखा:
“If fatherhood entails lifelong responsibility, then how can the legal system justify excluding the man from the life-or-death decision regarding his unborn child?”
यह तर्क भारत जैसे देश में भी विचारणीय है, जहां पारिवारिक ढांचे अब तेजी से बदल रहे हैं।
4. सामाजिक और मानसिक दृष्टिकोण: पुरुष की पीड़ा अदृश्य क्यों?
समाज में यह मान्यता गहराई से बैठी है कि “मर्द को दर्द नहीं होता”।
परंतु गर्भपात जैसे निर्णय से जुड़े मानसिक तनाव, अस्वीकृति, अपराधबोध, या भावनात्मक शून्यता से पुरुष भी प्रभावित होते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि “post-abortion grief” पुरुषों में भी होता है, विशेष रूप से तब जब उन्होंने बच्चे के लिए तैयार होने की इच्छा जताई थी।
परंतु कानून, चिकित्सा तंत्र और परामर्श प्रणाली — तीनों ही पुरुषों को ‘अप्रासंगिक पक्ष’ मानकर बाहर रखते हैं।
5. संभावित समाधान — अधिकार और दायित्व का संतुलन
(i) सूचना आधारित सहमति (Informed Intimation)
- विवाहित या लिव-इन संबंधों में यदि महिला को कोई खतरा नहीं हो, तो पुरुष को गर्भपात की पूर्व सूचना देने की नीति अपनाई जा सकती है।
- इससे पारदर्शिता और सहभागिता को बढ़ावा मिलेगा।
(ii) संयुक्त काउंसलिंग प्रणाली
- गर्भपात निर्णय से पूर्व दोनों पक्षों की मानसिक स्थिति परामर्श द्वारा समझी जाए — जहां महिला की अंतिम सहमति मान्य हो, लेकिन पुरुष की भावनात्मक बात भी सुनी जाए।
(iii) जवाबदेही के साथ अधिकार का संतुलन
- यदि पुरुष को जन्म के पश्चात भरण-पोषण की जिम्मेदारी दी जाती है, तो गर्भपात के संदर्भ में भी उसकी राय को advisory capacity में माना जाना चाहिए।
निष्कर्ष:
प्रजनन अधिकार महिला की स्वतंत्रता का अहम अंग हैं — इसमें कोई दो राय नहीं।
परंतु यदि हम ‘न्याय’ शब्द का गहन अर्थ समझना चाहें, तो वह केवल अधिकार देने तक सीमित नहीं, बल्कि सभी संबंधित पक्षों की वैधानिक, सामाजिक और भावनात्मक भागीदारी सुनिश्चित करने तक विस्तृत होता है।
यदि किसी संबंध से संतान जन्म लेती है, तो पिता बनना कानूनन दायित्व है।
तो गर्भपात जैसे निर्णायक कदम में पुरुष की राय, भावनाएं या स्थिति को पूर्णतः नकार देना न केवल विधिक रूप से असंगत है, बल्कि यह एक नई तरह की लैंगिक विषमता को जन्म देता है।
समय आ गया है कि भारत में प्रजनन न्याय की परिभाषा को अधिक समावेशी, संतुलित और सहभागितामूलक बनाया जाए।
लेखक परिचय:
एडवोकेट अमरेष यादव, सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया में अधिवक्ता हैं। वे संवैधानिक विधि, लैंगिक न्याय और नागरिक अधिकारों के मामलों में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करते हैं। उनकी दृष्टि संतुलित, विधिक तर्कों पर आधारित और सामाजिक रूप से उत्तरदायी है।
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