विशेष टिप्पणी


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राज्य की शक्ति के बीच संतुलन: प्रो. अली खान महमूदाबाद की अंतरिम जमानत पर सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप

लेखक: अधिवक्ता अमरेष यादव, सुप्रीम कोर्ट


प्रस्तावना

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 21 मई 2025 को एक अत्यंत विचारणीय आदेश पारित करते हुए प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को अंतरिम जमानत प्रदान की। यह निर्णय एक साधारण जमानत आदेश नहीं था, बल्कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अकादमिक स्वतंत्रता और राज्य की शक्ति के बीच संतुलन स्थापित करने का एक संवैधानिक प्रयास भी था।


मामला: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या उकसाने का आरोप?

प्रो. अली खान महमूदाबाद, अशोका विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर, पर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ संबंधी एक सोशल मीडिया पोस्ट के माध्यम से सांप्रदायिक तनाव फैलाने, आतंकवाद को सामान्यीकृत करने और महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाने जैसे गंभीर आरोप लगाए गए। हरियाणा पुलिस द्वारा भारतीय दंड संहिता की कई धाराओं में प्राथमिकी दर्ज कर गिरफ्तारी की गई।

लेकिन यह मामला महज किसी सोशल मीडिया पोस्ट की कानूनी वैधता नहीं, बल्कि उस बड़े प्रश्न का प्रतीक बन गया: क्या एक बौद्धिक विचार या आलोचना आपराधिक मंशा की श्रेणी में आता है?


सुप्रीम कोर्ट का आदेश: संतुलन और संवैधानिक विवेक का परिचायक

सर्वोच्च न्यायालय ने निम्नलिखित निर्देशों के साथ प्रोफेसर को अंतरिम राहत प्रदान की:

  • तीन सदस्यीय SIT का गठन – जांच की निष्पक्षता सुनिश्चित करने हेतु हरियाणा व दिल्ली से बाहर के वरिष्ठ IPS अधिकारियों को शामिल किया गया है। साथ ही एक महिला अधिकारी की उपस्थिति को अनिवार्य किया गया है।
  • जांच जारी रखने का निर्देश – कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह राहत जांच को प्रभावित नहीं करेगी।
  • सोशल मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर टिप्पणी पर अस्थायी प्रतिबंध – यथासंभव सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने हेतु यह संतुलन आवश्यक माना गया।

यह निर्णय दर्शाता है कि सुप्रीम कोर्ट कानून के क्रियान्वयन में केवल तकनीकी न्याय ही नहीं, बल्कि संवैधानिक मूल्य-आधारित न्याय सुनिश्चित करता है।


कानूनी विश्लेषण: संविधान की मूल भावना की पुनर्स्थापना

सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश में निहित है संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) — विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आत्मा। यह आदेश हमें याद दिलाता है कि असहमति, विश्लेषण या आलोचना को आपराधिक कृत्य घोषित करना केवल अभिव्यक्ति का दमन नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक संवाद की हत्या है।

इतिहास गवाह है कि Maneka Gandhi बनाम भारत सरकार, Shreya Singhal, D.K. Basu जैसे प्रकरणों में सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिक अधिकारों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी है। प्रो. अली खान का मामला उसी श्रृंखला की आधुनिक कड़ी प्रतीत होता है।


निष्कर्ष: यह केवल एक व्यक्ति की राहत नहीं, बल्कि लोकतंत्र की चेतावनी है

यह आदेश हमें उस असहज सच्चाई की ओर संकेत करता है — कि असहमति जताने वाले बुद्धिजीवियों, शिक्षकों, लेखकों और नागरिकों को राज्य तंत्र के माध्यम से नियंत्रित करने का प्रयास बढ़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप न केवल एक प्रोफेसर को न्याय दिलाने की दिशा में महत्वपूर्ण है, बल्कि यह आने वाले समय के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मानकों को भी निर्धारित करता है।

इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि कानून का उद्देश्य मौन करवाना नहीं, बल्कि संविधान द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रताओं की रक्षा करना है।


लेखक परिचय:
अधिवक्ता अमरेष यादव सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे हैं। वे संविधान, मानवाधिकार, और न्यायिक सक्रियता से जुड़े मामलों में विशेषज्ञता रखते हैं।


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