विदेश दौरे और प्रतिनिधित्व: क्या हमें ‘सर्वदलीय’ नहीं, ‘राष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडल’ की ओर बढ़ना चाहिए?
अमरेष यादव, अधिवक्ता


परिचय
भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में जब हमारे प्रतिनिधि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं, तब यह अपेक्षा की जाती है कि वे केवल सरकार नहीं, बल्कि पूरे देश की आवाज़ बनकर बोलें। ऐसे में यह विचारणीय है कि क्या विदेश दौरों के लिए “सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल” की पारंपरिक व्यवस्था पर्याप्त है, या अब समय आ गया है कि हम एक अधिक व्यापक, पेशेवर और राष्ट्रीय दृष्टिकोण से इस प्रक्रिया को पुनर्गठित करें?


1. सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल: नाम और व्यवहार में सामंजस्य जरूरी

जब सरकार विदेश यात्रा के लिए प्रतिनिधिमंडल भेजती है और उसे “सर्वदलीय” कहा जाता है, तो यह अपेक्षित होता है कि सभी प्रमुख राजनीतिक दलों को प्रतिनिधित्व का अवसर मिले।

लेकिन यदि प्रतिनिधियों का चयन सरकार द्वारा एकतरफा, बिना दलों की अनुशंसा के किया जाता है—तो यह “सर्वदलीय” शब्द का केवल प्रतीकात्मक उपयोग रह जाता है।

इस प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने के लिए यह उचित होगा कि विदेश मंत्रालय या संबंधित विभाग सभी दलों को पत्र भेजकर उनसे उनके प्रतिनिधि का नामांकन मांगे। इससे न केवल चयन प्रक्रिया पारदर्शी होगी, बल्कि राजनीतिक संतुलन और सम्मान भी बना रहेगा।


2. प्रतिनिधिमंडल केवल सांसदों तक सीमित क्यों?

एक और महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि विदेशी दौरों के प्रतिनिधिमंडल में केवल सांसदों को ही क्यों शामिल किया जाए? क्या प्रतिनिधित्व का अधिकार सिर्फ निर्वाचित जनप्रतिनिधियों तक सीमित होना चाहिए?

भारत में अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ, पूर्व राजनयिक, अर्थशास्त्री, वैज्ञानिक, शिक्षाविद, युवा उद्यमी और नागरिक समाज के प्रतिनिधि भी हैं, जो किसी भी वैश्विक चर्चा में भारत की स्थिति को बेहतर ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं।

इसलिए, एक राष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडल की अवधारणा अपनाई जानी चाहिए जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को भी स्थान मिले।


3. प्रत्यक्ष आमंत्रण और राजनीतिक मर्यादा

कई बार देखा गया है कि किसी विशेष सांसद को प्रत्यक्ष तौर पर संपर्क कर विदेश यात्रा के लिए आमंत्रित किया जाता है, जबकि उनकी पार्टी को इस विषय की कोई जानकारी नहीं होती।

यदि सरकार को यह ज्ञात हो कि किसी सांसद को पार्टी के औपचारिक अनुमोदन के बिना आमंत्रित किया गया है, तो उसे उस सांसद से संवाद कर यह स्पष्ट करना चाहिए कि:
“यह यात्रा आपकी व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राष्ट्रीय भूमिका के अंतर्गत है, और इसमें आपकी पार्टी की सहमति अनिवार्य है।”

इस प्रकार की संवाद प्रक्रिया न केवल राजनीतिक मर्यादा का पालन करेगी, बल्कि यह संस्थागत विश्वास भी बनाए रखेगी।


4. विशेषज्ञता का सम्मान अनिवार्य है

यदि कोई सांसद अंतरराष्ट्रीय नीति, कूटनीति, सुरक्षा या वैश्विक व्यापार जैसे विषयों में विशेषज्ञता रखता है, तो उसकी भागीदारी इस प्रकार के दौरों में आवश्यक मानी जानी चाहिए। प्रतिनिधियों का चयन केवल राजनीतिक समीकरणों या नजदीकियों के आधार पर नहीं, बल्कि उनकी विषयगत योग्यता के आधार पर होना चाहिए।


5. सरकार की दृष्टि: व्यावहारिक पक्ष भी समझना होगा

सरकार के सामने कई बार समय की सीमाएं और रणनीतिक आवश्यकताएं होती हैं। वह चाहती है कि अनुभवी या अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सहज सांसदों को ही भेजा जाए। यह दृष्टिकोण व्यावहारिक हो सकता है, लेकिन यदि यह प्रक्रिया बार-बार विपक्ष की सहमति और सहभागिता के बिना दोहराई जाती है, तो इससे असंतोष और राजनीतिक अविश्वास बढ़ता है।

इसलिए, सरकार की जिम्मेदारी है कि वह रणनीतिक तात्कालिकता और लोकतांत्रिक साझेदारी के बीच संतुलन बनाए।


निष्कर्ष: प्रतिनिधित्व का नया ढांचा जरूरी

अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की छवि को सुदृढ़ करने के लिए आवश्यक है कि हम विदेश दौरों को लेकर एक राष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडल मॉडल अपनाएं, जिसमें सभी राजनीतिक दलों को समान सम्मान मिले और विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को भी प्रतिनिधित्व का अवसर प्राप्त हो।

यह बदलाव न केवल लोकतंत्र को मजबूत करेगा, बल्कि भारत की वैश्विक साख को भी नई ऊंचाई पर ले जाएगा।


लेखक परिचय:
अमरेष यादव, दिल्ली उच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं और सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर नियमित लेखन करते हैं।


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