संविधान न अंबेडकर की थाली, न राउ की जलेबी – ये भारत की चेतना है, जिसे जातीय साजिश से मुक्त करना होगा

लेखक: अधिवक्ता अमरेष यादव, सुप्रीम कोर्ट

भारत का संविधान आज दो जातीय शक्तियों की मूर्ति-युद्ध का अखाड़ा बन चुका है।
एक तरफ दलित प्रतीकवाद के नाम पर डॉ. भीमराव अंबेडकर को ईश्वर के समकक्ष संविधान निर्माता बनाकर पेश किया जा रहा है – मानो बाकी लोग संविधान सभा में मोम की मूर्तियाँ थीं।
दूसरी तरफ ब्राह्मणवादी असहिष्णुता का तिलमिलाया हुआ तबका, B.N. राउ को “वास्तविक संविधान निर्माता” बताकर अपना खोया हुआ जातीय गौरव वापस लाने की दिखावटी कोशिश कर रहा है।

दोनों ओर से इतिहास की सर्जरी चल रही है, और बीच में संविधान की आत्मा दम तोड़ रही है।

संविधान: किसी की जातिगत बपौती नहीं

संविधान कोई एक आदमी की थाली में परोसी खिचड़ी नहीं थी।
ये कोई B.N. राउ की फाइलों से उपजी स्क्रिप्ट नहीं थी।
और ये सिर्फ अंबेडकर की कलम से निकली हुई ‘एकलव्य गाथा’ भी नहीं थी।

ये एक राष्ट्रीय बौद्धिक क्रांति का दस्तावेज था, जिसमें 299 लोगों ने भाग लिया, जिसमें 13 समितियाँ थीं, हज़ारों चर्चाएँ, और करोड़ों भारतीयों की उम्मीदें थीं।

डॉ. अंबेडकर का योगदान महान है, लेकिन वे एकमात्र निर्माता नहीं

डॉ. अंबेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने संविधान को कानूनी रूप देने में केंद्रीय भूमिका निभाई।
लेकिन क्या नेहरू, पटेल, मौलाना आज़ाद, कन्हैयालाल मुंशी, हंसराज मेहता, टीटी कृष्णमाचारी, और हज़ारों प्रस्तावों व सुझावों की कोई कीमत नहीं?

आज अंबेडकर को संविधान का एकमात्र निर्माता बनाकर हर मंच पर उनकी मूर्ति रख दी गई है – जैसे संविधान सभा का नाम ही अंबेडकर सभा था।
यह इतिहास की विकृति है, जिसे राजनीतिक ‘दलित पूंजीकरण’ ने हवा दी है।

अब ब्राह्मणवादी जवाबी एजेंडा: B.N. राउ पूजा

अब दूसरी तरफ एक प्रतिशोधी जातीय लॉबी उठ खड़ी हुई है, जो संविधान का झंडा अपने पूर्वज के हाथ में देना चाहती है।
B.N. राउ एक उच्च शिक्षित ब्राह्मण अधिकारी थे। उन्हें संविधान सभा का सलाहकार बनाया गया था। उन्होंने comparative studies दिए, कानूनी संदर्भ दिए – जो उपयोगी थे, लेकिन निर्णायक नहीं

उन्हें संविधान निर्माता बताना वैसा ही है जैसे किसी आर्किटेक्ट को बिल्डिंग का मालिक कह देना।

तो ये नया अभियान क्या है? यह सत्य का पुनरुद्धार नहीं, जातीय कुंठा की उपज है।

संविधान को मूर्तियों में कैद करने की साज़िशें

एक तरफ़ मूर्तियों के नीचे संविधान को ‘दलित इमोशनल आइकन’ बनाया जा रहा है।
दूसरी तरफ, ब्राह्मणवाद को ये बर्दाश्त नहीं कि एक दलित नेता का नाम संविधान के साथ जुड़ा हो – इसलिए अब B.N. राउ के नाम पर ‘मनोवैज्ञानिक बदला’ लिया जा रहा है।

ये दोनों प्रयास संविधान के मूल स्वभाव – समूहिकता, समावेशिता और लोकतांत्रिक विवेक – का अपमान हैं।

संविधान पर जातिगत इगो की लड़ाई – एक राष्ट्रीय खतरा

ये लड़ाई “किसने बनाया” से ज्यादा “किसकी मूर्ति लगेगी” की लड़ाई बन चुकी है।
संविधान अब न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता का दस्तावेज नहीं, बल्कि जातीय प्रतिष्ठा का स्मारक बना दिया गया है।

और यही भारत की सबसे बड़ी त्रासदी है – जहाँ संविधान की चेतना को मारकर उसकी चमचमाती मूर्ति पर माला चढ़ाई जा रही है।

Advocate’s Note: एक चेतावनी – अब बहुत हो गया!

मैं, अधिवक्ता अमरेष यादव, सुप्रीम कोर्ट, यह स्पष्ट करता हूँ –
संविधान न किसी एक दलित का गौरव है, न किसी ब्राह्मण का वंशधार। यह भारत की आत्मा है। इसे मूर्तियों से मुक्त कीजिए। इसे जातीय झंडों से बचाइए।

जो अंबेडकर को एकमात्र निर्माता कहता है – वह मूर्तिपूजक है।
जो B.N. राउ को असली निर्माता कहता है – वह ब्राह्मणवादी कुंठा का वाहक है।
और जो संविधान को समझता है – वह इन दोनों से आज़ाद है।

**अब वक्त है संविधान को किताब से निकालकर चेतना में जिंदा करने का।

अब वक्त है मूर्तियों को गिराकर न्याय के मूल्यों को उठाने का।
अब वक्त है जाति से ऊपर उठकर देश को बचाने का।**


लेखक परिचय:
अधिवक्ता अमरेष यादव, सुप्रीम कोर्ट – न्याय, इतिहास और राष्ट्रीय चेतना की लड़ाई लड़ने वाले निर्भीक आवाज़। संविधान को मूर्तियों से आज़ाद कराने के अभियान में सबसे आगे।


Amaresh Yadav

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