कॉलेजियम नहीं, अब यह न्यायपालिका का निजी ‘साम्राज्य’ बन चुका है!
✍️ अधिवक्ता अमरेष यादव, सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया

जस्टिस सूर्यकांत का बयान कि “कॉलेजियम प्रणाली न्यायपालिका की स्वतंत्रता का रक्षा कवच है”, संविधान, सामाजिक न्याय और सामान्य भारतीय वकील — तीनों का सीधा अपमान है।
सच यह है कि कॉलेजियम प्रणाली अब एक नंग-नाच बन चुकी है — न्यायपालिका का नहीं, बल्कि चंद खानदानी लॉ फर्मों, रिटायर्ड जजों के पुत्रों-पुत्रियों और ऊँचे दाम वाले वकीलों का गठजोड़।
🔥 1. यह प्रणाली ‘अंदरखाने की सौदेबाज़ी’ बन चुकी है
कोई आवेदन नहीं, कोई सार्वजनिक आमंत्रण नहीं, कोई मूल्यांकन नहीं।
बस 5 जज एक कमरे में बैठते हैं और तय कर लेते हैं — “इनमें से किसका बेटा, किसकी बेटी, कौन सा लॉ फर्म वाला अगले हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का जज होगा।”
यह पारदर्शिता नहीं, ‘पारिवारिक ट्रांसफर पोस्टिंग सिस्टम’ है।
👉 क्या यह वही प्रणाली है जिसे भारत के करोड़ों लोगों की न्यायिक उम्मीदों का संरक्षक माना जाए?
📊 2. भारत में हर दूसरा हाईकोर्ट जज अब ‘लिगेसी कोट’ पहनता है!
हाल ही के विश्लेषण में पाया गया कि दिल्ली, पंजाब, बॉम्बे और कलकत्ता हाईकोर्ट में 40% से अधिक नए जज किसी न किसी पूर्व जज के रिश्तेदार हैं।
- दिल्ली हाईकोर्ट में एक ही साल में 5 जज ऐसे नियुक्त हुए जिनके पिता, चाचा या मामा खुद हाईकोर्ट के पूर्व जज थे।
- सुप्रीम कोर्ट में हाल की नियुक्तियों में कम से कम 4 ऐसे नाम हैं जो सीधे वरिष्ठ न्यायाधीशों या पूर्व CJI से संबंध रखते हैं।
क्या यह योग्यता है? क्या यह मेरिट है? या यह ‘ज्यूडिशियल ब्लडलाइन’ का जहर है?
🧾 3. संविधान का मज़ाक उड़ाया गया है — और वो भी न्यायपालिका के द्वारा
संविधान के अनुच्छेद 124, 217 और 233 में स्पष्ट है कि न्यायिक नियुक्तियाँ राष्ट्रपति द्वारा की जाएंगी, परामर्श के साथ, लेकिन निर्णायक शक्ति न्यायपालिका के पास नहीं दी गई है।
कॉलेजियम प्रणाली खुद संविधान के साथ न्यायिक विद्रोह (judicial coup) है, जिसे 1993 में ‘द्वितीय न्यायाधीश मामला’ के नाम पर थोप दिया गया।
आज वही प्रणाली न्यायपालिका को एक ‘संवैधानिक मठ’ (judicial monastery) में बदल चुकी है — जिसमें सिर्फ उन्हीं को प्रवेश मिलता है जिनके पास पुश्तैनी वरदान या लॉ फर्मों की कृपा हो।
⚖️ 4. स्वतंत्रता का मतलब ‘संविधान से ऊपर होना’ नहीं होता
कॉलेजियम समर्थक कहते हैं — “कार्यपालिका हस्तक्षेप से बचाने के लिए यह जरूरी है।”
तो क्या न्यायपालिका अब खुद को संविधान से ऊपर मानती है? क्या लोकतंत्र में कोई भी संस्था ‘सुपर-संवैधानिक’ हो सकती है?
यदि PM और CM की नियुक्तियाँ लोकसभा-विधानसभा द्वारा होती हैं, तो जजों की नियुक्तियाँ सिर्फ जजों द्वारा क्यों? क्या यह लोकतंत्र है या जजतंत्र?
📉 5. कॉलेजियम = सामाजिक न्याय का तिलांजलि
कोई भी SC/ST/OBC युवा वकील कॉलेजियम से जज बनने की कल्पना भी नहीं कर सकता।
- न कोई आरक्षण,
- न कोई प्रतिनिधित्व मानक,
- न कोई क्षेत्रीय या भाषाई विविधता।
आज न्यायपालिका में ब्राह्मण, कायस्थ, अग्रवाल और उच्च जातियों का स्पष्ट वर्चस्व है — और कॉलेजियम इस व्यवस्था को बनाए रखने का सबसे बड़ा औजार है।
🚨 6. कॉलेजियम = लॉ फर्मों का ‘शेयर मार्केट’
- वही लॉ फर्में बार-बार सुप्रीम कोर्ट में अपीयर होती हैं,
- वही चेहरों को जज बनाया जाता है जो उन्हीं फर्मों से निकले होते हैं,
- और फिर वही जज उन्हीं फर्मों के केसों में फैसले देते हैं।
यह निष्पक्षता नहीं — यह एक लीगल-सुपरमार्केट है, जहाँ इंसाफ बिकता नहीं — बंटता है, लेकिन सिर्फ अपनों में।
🗣️ समाप्ति: अब समय है बार को बगावत करने का
हम वकील चुप रहे, इसलिए कॉलेजियम ‘रोजगार गारंटी योजना’ बन गई है — सिर्फ परिवार वालों और करीबी लॉ फर्म्स के लिए।
न्यायपालिका को बचाना है, तो कॉलेजियम को खत्म करना होगा — या कम से कम इसे पूरी तरह लोकतांत्रिक, पारदर्शी और संविधान सम्मत बनाना होगा।
👉 NJAC जैसी प्रणाली की ज़रूरत है जिसमें:
- न्यायपालिका, कार्यपालिका और जनता के प्रतिनिधि हों,
- SC/ST/OBC और महिलाओं का कोटा हो,
- उम्मीदवारों का इंटरव्यू, स्कोर, और चयन सार्वजनिक हो।
ये लड़ाई सत्ता की नहीं, न्याय की है। और अगर न्याय का मंदिर ही बंद दरवाज़ों में तय हो, तो फिर संविधान की आत्मा खुद घायल है।
✍️ — अधिवक्ता अमरेष यादव
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया
अमरेष यादव
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