“त्र” कोई स्वतंत्र अक्षर नहीं है — देवनागरी लिपि के वैज्ञानिक स्वरूप को समझना ज़रूरी है
✍️ लेखक: अमरेष यादव, अधिवक्ता – भारत का सर्वोच्च न्यायालय

प्रस्तावना
क्या “त्र” देवनागरी वर्णमाला का एक स्वतंत्र अक्षर है?
यह प्रश्न सामान्य लग सकता है, लेकिन वास्तव में यह हमारे भाषाई और सांस्कृतिक बोध की गहराई को चुनौती देता है। स्कूलों, किताबों, और यहां तक कि डिजिटल टूल्स में भी “त्र” को एक स्वतंत्र अक्षर की तरह पेश किया जाता है — जबकि यह भाषावैज्ञानिक दृष्टि से एक संयुक्त व्यंजन है, कोई मूल वर्ण नहीं।
इस लेख में हम तथ्यों, व्याकरणीय संदर्भों, और शिक्षण पद्धतियों के माध्यम से यह स्पष्ट करेंगे कि “त्र” क्यों एक संयुक्ताक्षर है, न कि स्वतंत्र अक्षर।
1. देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता को समझिए
देवनागरी लिपि, जिसमें हिंदी, संस्कृत, मराठी, कोंकणी जैसी भाषाएं लिखी जाती हैं, एक अत्यंत वैज्ञानिक लिपि है। इसमें वर्णों का क्रम और निर्माण एक निश्चित ध्वन्यात्मक और संरचनात्मक आधार पर किया गया है।
देवनागरी के मूल व्यंजन (33 मुख्य व्यंजन) इस प्रकार हैं:
क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, … व, श, ष, स, ह
इनमें “त्र” कहीं नहीं आता।
2. “त्र” वास्तव में है क्या?
“त्र” = त् + र
यह एक संयुक्ताक्षर (conjunct consonant) है, जिसमें दो व्यंजनों का मेल होता है:
- पहला: त् — ‘त’ का हलन्त रूप (यानि बिना स्वर के)
- दूसरा: र — सामान्य व्यंजन
इन दोनों को जोड़ने पर “त्र” बनता है। ठीक वैसे ही जैसे:
- क् + ष = क्ष
- ज् + ञ = ज्ञ
देवनागरी में जब दो व्यंजन मिलते हैं और एक स्वर रहित होता है, तो वे मिलकर एक संयुक्ताक्षर बनाते हैं। यही नियम “त्र” पर लागू होता है।
3. पाणिनीय व्याकरण में स्पष्ट निर्देश
प्राचीनतम और विश्वप्रसिद्ध संस्कृत व्याकरण ग्रंथ अष्टाध्यायी (पाणिनि रचित) में संयुक्ताक्षरों के गठन की स्पष्ट नियमावली है। वहाँ “त्र” को कभी स्वतंत्र वर्ण नहीं माना गया है।
पाणिनि के अनुसार, यह मात्र व्यंजन संयोग (Consonant Cluster) का एक उदाहरण है। “त्” और “र” के योग से उत्पन्न हुआ “त्र” एक लिपिक समायोजन है — न कि एक मौलिक ध्वनि।
4. शिक्षण प्रणाली में फैला भ्रम
बहुत से स्कूलों में बच्चों को “त्र”, “क्ष”, “ज्ञ” आदि को एक साथ अतिरिक्त अक्षरों के रूप में पढ़ाया जाता है। यही से यह भ्रम जन्म लेता है कि ये भी वर्णमाला के ‘अक्षर’ हैं।
बोर्ड की किताबें, डिजिटल लर्निंग एप्स, और कीबोर्ड्स पर भी इन्हें अलग से दिखाया जाता है, जो भ्रम को और बढ़ाता है।
परंतु किसी भी मान्यता प्राप्त व्याकरण पुस्तक में इन्हें मूल वर्ण नहीं माना गया है।
उदाहरण:
- एनसीईआरटी की हिंदी व्याकरण पुस्तक (कक्षा 4-5)
- रामदेव वर्मा की व्याकरण शृंखला
- बृजेंद्र लाल शुक्ल की “हिंदी वर्णमाला विश्लेषण” आदि
5. भाषा में अनुशासन क्यों ज़रूरी है?
भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक चेतना की संवाहिका है। अगर हम “संयुक्ताक्षर” और “मूल अक्षर” का फर्क नहीं समझेंगे, तो हम भाषा की संरचना को कमजोर करेंगे।
विज्ञान जितना शब्दों में नहीं, वर्णों में होता है।
अगर हम “त्र” को एक वर्ण मानते रहेंगे, तो वह उसी तरह होगा जैसे अंग्रेज़ी में “TH” को एक अक्षर मानना — जो व्याकरणिक दृष्टि से पूर्णत: गलत है।
निष्कर्ष
“त्र” कोई स्वतंत्र अक्षर नहीं है।
यह एक संयुक्त व्यंजन है — त् + र का संयोग।
हमें अपनी भाषा और लिपि के प्रति वैज्ञानिक समझ को मजबूत करने की आवश्यकता है। शिक्षण पद्धति, पाठ्यक्रम, और तकनीकी माध्यमों में भी यह सुधार जरूरी है कि ऐसे संयुक्ताक्षरों को “अक्षर” न कहकर, उनके वास्तविक स्वरूप — संयुक्ताक्षर — के रूप में पढ़ाया जाए।
अंतिम बात
“भाषा को समझना केवल बोलना नहीं, सोचने का तरीका विकसित करना है।”
संयुक्ताक्षर और वर्णमाला का यह सूक्ष्म भेद हमें भाषा की गहराई और गरिमा का अनुभव कराता है। आइए — इस वैज्ञानिक लिपि का सम्मान करते हुए उसके हर तत्व को सही रूप में पहचानें और प्रस्तुत करें।
📌 लेखक:
अमरेष यादव
अधिवक्ता, भारत का सर्वोच्च न्यायालय
हिंदी भाषा प्रेमी व सांस्कृतिक शोधार्थी
अमरेष यादव
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