✍️ अधिवक्ता Amaresh Yadav

(संवैधानिक अध्ययन एवं विधि–दृष्टिकोण)


संवैधानिक संस्थाओं पर दबाव या लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व?

— एक ग़लत नैरेटिव का विधिक प्रत्युत्तर

इस प्रकाशित लेख “संवैधानिक संस्थाओं पर दबाव का खेल” में यह आरोप उछाला गया है कि विपक्ष संवैधानिक संस्थाओं—विशेषतः चुनाव आयोग और न्यायपालिका—पर अनावश्यक दबाव बना रहा है। लेख का मूल स्वर यह है कि संस्थाओं पर प्रश्न उठाना, उनके निर्णयों की समीक्षा करना अथवा संवैधानिक उपायों (जैसे महाभियोग) की मांग करना, लोकतंत्र को कमजोर करने का प्रयास है।

यह दृष्टिकोण न केवल संवैधानिक रूप से त्रुटिपूर्ण है, बल्कि लोकतांत्रिक चेतना के भी विरुद्ध है।


🔹 1. प्रश्न करना दबाव नहीं, संवैधानिक अधिकार है

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है।
यह स्वतंत्रता केवल सरकार तक सीमित नहीं है, बल्कि सभी सार्वजनिक प्राधिकरणों, जिनमें संवैधानिक संस्थाएँ भी सम्मिलित हैं, उनके कार्यों की आलोचना का अधिकार भी देती है।

S.P. Gupta बनाम भारत संघ (1981) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि
पारदर्शिता और उत्तरदायित्व लोकतंत्र के प्राण हैं।

यदि प्रश्न पूछना ही “दबाव” है, तो—

  • संसद की बहसें
  • न्यायिक पुनरावलोकन
  • आरटीआई
  • जनहित याचिकाएँ

सभी असंवैधानिक घोषित करनी पड़ेंगी। यह तर्क स्वयं में हास्यास्पद है।


🔹 2. महाभियोग कोई धमकी नहीं, संवैधानिक प्रक्रिया है

न्यायाधीशों के विरुद्ध महाभियोग की व्यवस्था:

  • अनुच्छेद 124(4) (सर्वोच्च न्यायालय)
  • अनुच्छेद 217 (उच्च न्यायालय)

स्वयं संविधान में निहित है।

महाभियोग की मांग को “न्यायपालिका पर दबाव” कहना उतना ही अतार्किक है जितना—

  • अविश्वास प्रस्ताव को राष्ट्रद्रोह कहना
  • सीएजी रिपोर्ट को सरकार-विरोधी साजिश बताना

संवैधानिक प्रक्रिया का उपयोग संवैधानिक अपराध नहीं हो सकता।


🔹 3. चुनाव आयोग स्वतंत्र है, निरंकुश नहीं

चुनाव आयोग की स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि वह—

  • आलोचना से ऊपर है
  • न्यायिक समीक्षा से परे है

Mohinder Singh Gill बनाम मुख्य चुनाव आयुक्त जैसे अनेक निर्णय बताते हैं कि
चुनाव आयोग के कार्य न्यायिक जांच के अधीन हैं।

यदि चुनाव आयोग की प्रत्येक कार्रवाई निष्पक्ष ही मानी जाए, तो—

  • न्यायालयों द्वारा चुनावी निर्णयों पर रोक
  • फटकार
  • दिशा-निर्देश

सब अर्थहीन हो जाते हैं।


🔹 4. चयनात्मक नैतिकता का पर्दाफाश

लेख यह बताने में असफल रहता है कि:

  • दलबदल पर संस्थागत चुप्पी क्यों?
  • घृणास्पद भाषणों पर असमान कार्रवाई क्यों?
  • आदर्श आचार संहिता का चयनात्मक प्रयोग क्यों?
  • 2023 के बाद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता क्यों घटी?

संस्थागत मौन भी एक राजनीतिक क्रिया है, पर लेख उसे निर्दोष बताता है और केवल विपक्ष की आवाज़ को “दबाव” कहता है।


🔹 5. संस्थाओं की साख श्रद्धा से नहीं, आचरण से बनती है

संवैधानिक संस्थाएँ तब कमजोर होती हैं जब:

  • प्रश्नों को राष्ट्र-विरोध बताया जाए
  • जवाबदेही को शत्रुता माना जाए
  • आलोचना को षड्यंत्र करार दिया जाए

अंधविश्वास संविधान की नैतिकता नहीं है।
संविधान भक्ति नहीं, विवेक मांगता है।


🔹 6. लेख स्वयं वैचारिक दबाव का उदाहरण है

विडंबना यह है कि— जो लेख दूसरों पर “दबाव” का आरोप लगाता है,
वह स्वयं एकतरफा भाषा, नैतिक आतंक और पूर्वाग्रहपूर्ण निष्कर्षों के माध्यम से
संवैधानिक विमर्श पर वैचारिक दबाव बनाता है।


🔴 निष्कर्ष (संवैधानिक दृष्टि से)

संवैधानिक संस्थाओं पर प्रश्न उठाना— ❌ लोकतंत्र को कमजोर करना नहीं है
✅ लोकतंत्र को जीवित रखना है

वास्तविक खतरा तब पैदा होता है जब:

  • संस्थाओं को पवित्र गाय बना दिया जाए
  • आलोचना को अपराध घोषित कर दिया जाए
  • जवाबदेही को अवज्ञा कहा जाए

जब संस्थाएँ प्रश्नों से डरने लगें,
तब लोकतंत्र घायल होता है।
और जब नागरिक प्रश्न करना छोड़ दें,
तब लोकतंत्र मर जाता है।


— अधिवक्ता Amaresh Yadav
(संविधान, विधि और लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व के पक्ष में) ⚖️

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