उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग : संस्थागत विफलता पर संवैधानिक सवाल
— Advocate Amaresh Yadav, Supreme Court of India

उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग (UPPSC) के वर्तमान अध्यक्ष श्री संजय श्रीनेत के कार्यकाल को लेकर उठ रहे प्रश्न अब व्यक्तिगत आलोचना नहीं, बल्कि संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता से जुड़े गंभीर मुद्दे बन चुके हैं। हालात ऐसे हैं कि यदि इन पर संसद या विधानसभा में समग्र बहस कराई जाए, तो समय कम पड़ जाए—और सवाल पूरे न हों।
1. परीक्षा प्रणाली पर लगातार संदेह
पिछले कुछ वर्षों में आयोग की परीक्षाओं को लेकर पेपर लीक, धांधली, प्रक्रियागत गड़बड़ियाँ और बार-बार परीक्षाओं का स्थगन असाधारण रूप से सामने आए हैं। यह मात्र “प्रशासनिक चूक” नहीं, बल्कि सिस्टमिक फेल्योर की ओर संकेत करता है, जिसका सीधा असर लाखों युवाओं के भविष्य पर पड़ा है।
2. पारदर्शिता का अभाव : संविधान के अनुच्छेद 14 व 16 का उल्लंघन
- कट-ऑफ अंकों की पारदर्शिता नहीं
- प्राप्त अंकों (marks obtained) का सार्वजनिक न किया जाना
- चयन मानकों में निरंतर बदलाव
ये सभी बातें अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 16 (सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर) की मूल भावना के विपरीत हैं। सर्वोच्च न्यायालय बार-बार कह चुका है कि selection process must not only be fair, but must also appear to be fair.
3. “15 गुना क्वालिफिकेशन” : निर्णय या मनमानी?
आयोग द्वारा स्वयं घोषित मानक—कि मुख्य परीक्षा हेतु 15 गुना अभ्यर्थियों को क्वालिफाई कराया जाएगा—को बाद में निष्प्रभावी कर देना, वैधानिक अपेक्षा (legitimate expectation) के सिद्धांत का खुला उल्लंघन है। यह प्रशासनिक विवेक नहीं, बल्कि मनमानी (arbitrariness) के दायरे में आता है, जिसे न्यायपालिका ने असंवैधानिक माना है।
4. विरोध करने वाले छात्र और राज्य की लाठी
लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब अभ्यर्थी अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा हेतु शांतिपूर्ण विरोध करते हैं और उनके जवाब में लाठीचार्ज, पुलिसिया दमन और आपराधिक मुकदमे थोपे जाते हैं, तो यह आयोग के बायोडाटा का “उपलब्धि-पत्र” नहीं, बल्कि संवैधानिक विफलता का प्रमाण-पत्र बन जाता है।
5. इलाहाबाद हाईकोर्ट में स्वीकारोक्ति : गंभीर स्वीकार
स्थिति की गंभीरता का अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष स्वयं आयोग को परीक्षाओं में गड़बड़ी स्वीकार करनी पड़ी। इसके बावजूद अध्यक्षीय उत्तरदायित्व तय न होना—यह प्रश्न खड़ा करता है कि
क्या उत्तरदायित्व केवल काग़ज़ों तक सीमित है?
6. चयनात्मक नैतिकता : अनिल यादव बनाम संजय श्रीनेत
यह भी एक अहम सवाल है कि
- जब UPPSC के पूर्व अध्यक्ष अनिल यादव के कार्यकाल पर खुलकर बहस हुई,
- तब वर्तमान अध्यक्ष संजय श्रीनेत पर वही नैतिक और कानूनी कसौटी क्यों लागू नहीं हो रही?
यदि एक गलती “गलत” थी, तो दूसरी गलती को सही ठहराने का नैतिक अधिकार किसे है?
यह चयनात्मक आक्रोश (selective outrage) नहीं तो और क्या है?
7. मीडिया की चुप्पी और लोकतंत्र
क्या अब
- अख़बारों की स्याही कम पड़ गई है?
- या चैनलों के लाइसेंस खतरे में हैं?
जब संस्थाएँ चुप रहती हैं और सत्ता-संरक्षित पदों पर बैठे लोग जवाबदेही से बाहर रह जाते हैं, तब लोकतंत्र केवल औपचारिकता बनकर रह जाता है।
8. श्वेतपत्र की आवश्यकता
अब समय आ गया है कि
- UPPSC के कार्यकाल,
- परीक्षा प्रक्रिया,
- चयन मानदंड,
- न्यायालयी टिप्पणियों
पर विधानसभा और संसद के समक्ष एक विस्तृत श्वेतपत्र (White Paper) प्रस्तुत किया जाए।
यह कोई राजनीतिक मांग नहीं, बल्कि संवैधानिक उत्तरदायित्व है।
निष्कर्ष
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की पंक्तियाँ आज पहले से अधिक प्रासंगिक हैं—
“समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध!
जो तटस्थ है, समय लिखेगा, उसका भी अपराध!!”
आज तटस्थ रहना भी अपराध की श्रेणी में है।
यदि हम युवाओं के भविष्य, संविधान की आत्मा और संस्थाओं की साख की रक्षा करना चाहते हैं, तो सवाल पूछना ही नहीं—जवाब तय करना भी अनिवार्य है।
— Advocate Amaresh Yadav
Supreme Court of India
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