चार्वाक की चौखट से — एक करारा व्यंग्य

✍️Adv Amaresh Yadav
ईश्वर है या नहीं—इस पर बहस करना वही है जैसे भूखे आदमी से पूछना कि थाली गोल होनी चाहिए या चौकोर।
चार्वाक हँसता है—और कहता है, “पहले रोटी रखो, फिर ज्यामिति पढ़ाना।”
यहाँ दो जमातें हैं।
एक कहती है—ईश्वर है, सब कुछ वही कर रहा है।
दूसरी कहती है—ईश्वर नहीं है, सब कुछ विज्ञान कर रहा है।
चार्वाक पूछता है—“और जो तुम दोनों कर रहे हो, वह कौन कर रहा है? बकलोली?”
धर्म के ठेकेदार कहते हैं—विश्वास करो।
नास्तिकों के पुरोहित कहते हैं—इंकार करो।
चार्वाक कहता है—“दोनों में मेहनत बराबर है, नतीजा शून्य।
तुमने भी बिना जाँचे मान लिया, इन्होंने भी बिना जिए नकार दिया।”
एक पक्ष मंदिर-मस्जिद में ईश्वर खोजता है,
दूसरा प्रयोगशाला में।
चार्वाक बाजार में उतरकर देखता है—
भूख, डर, लालच, सत्ता—यहीं सारे देवता भी हैं और राक्षस भी।
ईश्वर के अस्तित्व पर बहस करने वाले पूछते हैं—“सबूत कहाँ है?”
चार्वाक कहता है—“तुम्हारे पेट में।
खाना दो—विश्वास पैदा होगा।
न दो—नास्तिकता भी उग्र हो जाएगी।”
धर्म कहता है—त्याग करो।
नास्तिकता कहती है—तर्क करो।
चार्वाक कहता है—“पहले जियो।
तर्क बिना जीवन के भीख है,
और त्याग बिना पेट के पाखंड।”
जो ईश्वर को हर सवाल का जवाब बना देता है,
वह शासक का सबसे प्रिय नागरिक है।
जो ईश्वर को हर सवाल से मिटा देता है,
वह भी शासक का ही काम आसान करता है।
चार्वाक मुस्कुराता है—
“दोनों भीड़ हैं; फर्क बस नारे का है।”
चार्वाक न मंदिर तोड़ता है, न प्रयोगशाला जलाता है।
वह बस इतना कहता है—
“जब तक आँख देखती है, कान सुनते हैं, जीभ स्वाद जानती है—
उसी को सच मानो।
बाक़ी सब बहसें हैं—
मूर्खों की मंडली के लिए बौद्धिक अफ़ीम।”
और अंत में चार्वाक का फैसला—
ईश्वर हो या न हो,
तुम्हारी थाली, तुम्हारी आज़ादी और तुम्हारी हँसी
अगर किसी बहस से छिन रही है—
तो समझ लो,
वह बहस नहीं,
ठगी है।

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