धर्म पूछा गया, जाति नहीं — जब आतंकी हमला भी TRP और सत्ता की स्क्रिप्ट पर चलता है!

लेखक: अधिवक्ता अमरेष यादव, सुप्रीम कोर्ट
22 अप्रैल 2025, जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में एक भीषण आतंकी हमला होता है। दर्जनों निर्दोष पर्यटकों की हत्या होती है, कई गंभीर रूप से घायल होते हैं। यह हमला किसी एक धर्म, जाति, क्षेत्र या देश के खिलाफ नहीं — बल्कि समूची मानवता पर हमला था।
लेकिन इससे पहले कि देश में गुस्सा, सवाल और जवाबदेही की आवाज़ें उठतीं — एक टेम्प्लेट तैयार हो जाता है। और वह टेम्प्लेट था:
“धर्म पूछा गया, जाति नहीं।”
यह वाक्य आतंकवादियों ने नहीं कहा था। यह वाक्य उन “राष्ट्रवादी” न्यूज़ चैनलों की स्क्रीन पर लगातार चल रहा था जो खुद को लोकतंत्र का प्रहरी कहते हैं। सवाल ये है — क्यों?
1. हमला आतंकी था, जवाब राजनीतिक क्यों है?
जब हमला आतंकियों ने किया, तो सबसे पहले सुरक्षा एजेंसियों की जवाबदेही तय होनी चाहिए थी।
- कहाँ चूक हुई?
- क्या खुफिया इनपुट्स नजरअंदाज़ हुए?
- क्या इस रूट पर पर्यटकों की सुरक्षा सुनिश्चित की गई थी?
इनमें से कोई सवाल मुख्यधारा मीडिया ने नहीं उठाया। क्योंकि सवाल उठाना उनके लिए “देशद्रोह” और TRP में घाटे का सौदा हो चुका है।
2. मीडिया का झूठा नैरेटिव — “धर्म बनाम जाति”
घटना के कुछ ही घंटों में कई न्यूज़ चैनल्स और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने यह लाइन पकड़ ली:
“धर्म पूछा गया, जाति नहीं।”
जैसे यह तय कर लिया गया हो कि:
- आतंकवादी हमले को सांप्रदायिक चश्मे से दिखाओ,
- ताकि जाति आधारित सामाजिक सवाल न उठें,
- और “राष्ट्रवाद” के नाम पर सरकार को क्लीन चिट दे दो।
क्या यह सिर्फ संयोग है कि यह लाइन लगभग हर चैनल पर एक जैसी थी? या यह एक केंद्रीकृत मीडिया मैसेजिंग ऑपरेशन का हिस्सा था?
3. क्या “धर्म पूछना” आतंकवाद का प्रमाणपत्र है?
मान लें किसी हमलावर ने “धर्म पूछा” — तो क्या इससे सुरक्षा की विफलता छिप जाती है?
क्या यह तर्क इस बात को छुपा सकता है कि हमला देश की सबसे संवेदनशील सीमा के भीतर, भारी चेकपॉइंट्स के बावजूद हुआ?
क्या यह नैरेटिव उन मृतकों को वापस ला सकता है जिनकी जान देश के सिस्टम की चूक से गई?
सुप्रीम कोर्ट में एक वकील के तौर पर मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ —
आतंकवाद की जिम्मेदारी सिर्फ बंदूक उठाने वालों की नहीं, उसे रोकने में विफल सिस्टम की भी होती है।
4. लोकतंत्र को नुकसान पहुँचाने वाले पत्रकारिता के अपराधी
जब मीडिया का उद्देश्य सत्ता से सवाल पूछने की जगह सत्ता की बोली बोलना हो जाए,
जब हर घटना का विश्लेषण ‘धर्म बनाम जाति’ के टुच्चे झगड़े में बदल दिया जाए,
जब शहीदों और मृतकों की आत्मा की भी कीमत टीआरपी से तय होने लगे —
तो समझ लीजिए, मीडिया एक अपराध में भागीदार बन चुका है।
5. आतंकवाद का जवाब TRP नहीं, सिस्टम सुधार है
आतंकवाद का सामना “कौन सा धर्म मारा गया” के हिसाब से नहीं किया जाता।
- यह सामूहिक सुरक्षा रणनीति,
- खुफिया नेटवर्क की पारदर्शिता,
- और सिस्टम की जवाबदेही से किया जाता है।
लेकिन जब यह नैरेटिव तय कर लिया जाए कि
“धर्म पूछा गया, जाति नहीं”,
तो स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता और मीडिया मिलकर जनता की आँखों में धूल झोंकना चाहते हैं।
निष्कर्ष: यह हमला देश पर था — और मीडिया का रवैया लोकतंत्र पर हमला है
जब आतंकी हमला होता है और उसका विश्लेषण किसी आईटी सेल की तरह होता है,
जब चैनल एकसुर में स्क्रिप्ट पढ़ते हैं,
और जब कोई पत्रकार सवाल पूछने की जगह ‘सूचना’ छिपाने में व्यस्त हो —
तो यह राष्ट्रभक्ति नहीं, राष्ट्र के साथ गद्दारी है।
मैं यह लेख न सिर्फ एक अधिवक्ता के रूप में, बल्कि एक जागरूक नागरिक की चेतावनी के रूप में लिख रहा हूँ:
मीडिया पर भरोसा करने से पहले अब सोचना होगा।
वरना कल आतंकियों की गोली से नहीं, टीवी की स्क्रिप्ट से लोकतंत्र मरेगा।
लेखक परिचय:
अधिवक्ता अमरेष यादव सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं और सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर अपने आक्रामक लेकिन संविधानसम्मत दृष्टिकोण के लिए जाने जाते हैं।
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