सबूत की राजनीति: जब राम मंदिर पर दस्तावेज़ मांगे गए और वक्फ पर आस्था की गुहार हुई

लेखक: अधिवक्ता अमरेष यादव, सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता
भारत में धर्म और न्याय का रिश्ता हमेशा जटिल रहा है। हाल ही में एक प्रश्न ने कानूनी और सामाजिक गलियारों में हलचल मचा दी —
“राम मंदिर के लिए जब साक्ष्य मांगे गए, तो वक्फ के लिए 500 साल पुराने दावे पर आस्था क्यों चल जाए?”
क्या हमारी न्यायिक व्यवस्था धर्म के आधार पर अलग-अलग मानदंड अपनाती है? क्या सुप्रीम कोर्ट ‘दो आँखों’ से देख रहा है — एक आंख आस्था के लिए, दूसरी आंख दस्तावेज़ के लिए?
राम मंदिर: आस्था + साक्ष्य = न्याय
2019 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक अयोध्या विवाद में स्पष्ट रूप से कहा कि यह मामला आस्था का नहीं, भूमि स्वामित्व का है। परंतु फैसले में यह भी माना गया कि:
- रामलला विराजमान को “कानूनी व्यक्ति” के रूप में मान्यता मिली,
- ASI की खुदाई से गैर-इस्लामी संरचना के प्रमाण मिले,
- हिंदू समुदाय द्वारा लंबे समय से की जा रही पूजा को भी महत्व दिया गया।
अर्थात्, यह फैसला सिर्फ आस्था पर नहीं बल्कि परंपरा और प्रमाण के संगम पर आधारित था।
वक्फ विवाद: जब इतिहास चुप है, तो दावे ज़ोरदार
अब केंद्र सरकार ने ‘वक्फ बाय यूज़र’ का प्रावधान हटाया है — यानी अब केवल मौखिक दावों से कोई संपत्ति वक्फ घोषित नहीं की जा सकती। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने पूछा:
“500 साल पुराने वक्फ का सबूत कोई कैसे देगा?”
यह सवाल मानवीय लग सकता है, परंतु इसी के साथ एक नई बहस ने जन्म ले लिया:
“तो क्या अब कोई भी कह सकता है कि 1200 साल पहले किसी राजा ने 40 गाँव किसी मंदिर को दान कर दिए थे?”
क्या ऐसी दलीलों से वक्फ के दावे मजबूत होंगे या संदिग्ध?
क्या सुप्रीम कोर्ट की दो आँखें हैं?
राम मंदिर मामले में कोर्ट ने सालों तक साक्ष्य की पड़ताल की, ASI की खुदाई करवाई, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों की जांच की और फिर आस्था की निरंतरता को स्वीकार किया।
दूसरी ओर, यदि वक्फ मामलों में केवल परंपरा या “उपयोग” के आधार पर संपत्ति को वक्फ मान लिया जाए, तो यह समान न्याय का उल्लंघन होगा।
भविष्य की राह: धर्म नहीं, दस्तावेज़ बोलें
भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। न्यायालयों का यह कर्तव्य है कि वे किसी भी धर्म के दावों की जांच उसी प्रमाणिकता और साक्ष्य के आधार पर करें। चाहे वह मंदिर हो या मस्जिद, गुरुद्वारा हो या चर्च — सबके लिए एक ही न्यायिक कसौटी होनी चाहिए।
निष्कर्ष
न्याय की आंखें बराबरी से देखती हैं।
लेकिन जब एक आंख केवल आस्था पर केंद्रित हो और दूसरी केवल दस्तावेज़ तलाशती हो — तो जनता को यह महसूस होने लगता है कि न्याय पक्षपाती है।
सुप्रीम कोर्ट को इस बहस का जवाब संतुलन के साथ देना होगा — ताकि ना तो आस्था अपमानित हो, ना ही संविधान।
लेखक परिचय:
अधिवक्ता अमरेष यादव
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया
(संविधानिक, धार्मिक और भूमि विवाद मामलों में विशेष अनुभव)
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