कैसे अमेरिका ‘चौधरी’ बन गया और हम ‘पिछलग्गू’ — एक युद्धविराम की कहानी

लेखक: अधिवक्ता अमरेष यादव
10 मई 2025 की शाम। जैसे ही भारत और पाकिस्तान के बीच अचानक युद्धविराम की घोषणा हुई, सोशल मीडिया से लेकर टीवी डिबेट्स तक एक ही सवाल गूंज उठा — “हमने हमला क्यों रोका?” और उससे भी बड़ा सवाल यह था — “अमेरिका कौन होता है हमारी लड़ाई रोकने वाला?”
हम लड़े, वो बोले — और सब रुक गया!
पहलगाम का वह दर्दनाक आतंकवादी हमला जिसमें 27 निर्दोष लोग मारे गए, भारत के लिए असहनीय था। पूरा देश गुस्से में था। सरकार ने युद्ध जैसा जवाब दिया। राफेल आसमान में गरजे, ब्रह्मोस पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर बरसे, और पूरा देश एक स्वर में बोला — “अबकी बार आर-पार।”
लेकिन तभी… अमेरिका की एक फोन कॉल, एक ट्वीट, और एक “डिप्लोमैटिक अपील”। और भारत ने हमला रोक दिया।
युद्ध के मैदान में हम, समझौते की मेज पर अमेरिका
युद्ध भारत और पाकिस्तान के बीच था, लेकिन मध्यस्थता कर रहे थे — अमेरिका, सऊदी अरब और तुर्की। अमेरिका ने अपने पुराने सुपरपावर वाले अंदाज़ में हस्तक्षेप किया और भारत-पाकिस्तान दोनों से “तत्काल संघर्षविराम” की मांग की। पाकिस्तान तो पहले ही पीछे हटना चाहता था, लेकिन भारत? भारत ने भी हामी भर दी।
सवाल ये है — क्या भारत अब भी अमेरिका की “शांति नीति” का पिछलग्गू बना रहेगा?
क्या हम अब भी रणनीतिक रूप से स्वतंत्र हैं?
भारत आज दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। हमारे पास राफेल, S-400, ब्रह्मोस, और एक मजबूत थल-नौ-वायु सेना है। हमारे पास सैटेलाइट निगरानी, साइबर इंटेलिजेंस और वैश्विक दोस्ती है। फिर भी जब बात हमारी सुरक्षा और जवाबी कार्रवाई की आती है — तो अमेरिका, UN, या किसी और “महाशक्ति” की मंजूरी जरूरी हो जाती है?
क्या हम अपने निर्णय खुद नहीं ले सकते?
“अमेरिका चौधरी है”— इस सोच से बाहर निकलने का वक्त है
हर बार जब भारत decisive होता है, कोई न कोई ‘बड़ा भाई’ बीच में आ जाता है। 1999 में कारगिल, 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक, 2019 में बालाकोट — और अब 2025 में ऑपरेशन सिंदूर। पैटर्न साफ है: भारत जवाब देता है, अमेरिका रोकता है। और भारत मान जाता है।
हम खुद को ‘विकासशील’ से ‘विकसित’ की ओर जाते देश कहते हैं। लेकिन अगर हमारी विदेश नीति अब भी वाशिंगटन डीसी की स्वीकृति पर टिकी है, तो यह विकास अधूरा है।
निष्कर्ष: अगर भारत को वैश्विक शक्ति बनना है…
तो उसे चौधरी बनने के लिए किसी और के “हुंकार” की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए।
हम ‘विश्वगुरु’ तब बनेंगे जब अपने युद्ध और शांति — दोनों के निर्णय अपने विवेक से लेंगे।
आज नहीं तो कब?
आप क्या सोचते हैं? क्या भारत को अमेरिका की मध्यस्थता माननी चाहिए थी? या क्या हमें निर्णायक सैन्य दबाव बनाए रखना था? अपनी राय कमेंट में बताएं।
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