पत्रकारिता या परजीविता?
अनिल यादव की “घोसी सांसद राजीव राय की चापलूसी” का रहस्य क्या है?

पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होती है — लेकिन जब यही स्तंभ “फंड के फ्लोर” पर खड़ा हो जाए, तो सवाल उठाना ज़रूरी हो जाता है।
तथाकथित पत्रकार अनिल यादव इन दिनों राजीव राय भजन मंडली के मुखिया बन चुके हैं। आप उनकी सोशल मीडिया टाइमलाइन खोलिए — हर दूसरे-तीसरे दिन राजीव राय की जय-जयकार, “विकास पुरूष” की संज्ञा, और चाटुकारिता से सनी पोस्ट देखने को मिल जाएंगी।
लेकिन सवाल है — क्यों? सिर्फ पत्रकारिता के उसूलों से? या कोई और समीकरण है?
🧐 तथ्य 1: सिर्फ एक सांसद का महिमा मंडन!
देश में सैकड़ों सांसद हैं, समाजवादी पार्टी में भी कई बड़े नाम हैं — लेकिन अनिल यादव साहब के लिए सिर्फ एक ही नेता की ‘पॉलिश’ ज़रूरी लगती है:
राजीव राय।
क्या घोसी के इस सांसद ने वाकई कोई ऐसा अद्भुत कार्य किया है जो दिन-रात तारीफ के काबिल है?
न अस्पताल खुलवाया, न ट्रेन रुकवाई, न कोई बड़ा विकास — फिर भी पूजा-पाठ चालू है।
💰 तथ्य 2: फंड का खेल
सूत्रों और करीबी राजनीतिक हलकों की मानें तो:
- राजीव राय को हवाला और चुनावी फंडिंग मामलों में ED कई बार नोटिस भेज चुकी है।
- समाजवादी पार्टी के बड़े नेताओं — खासकर अखिलेश यादव — के चुनावी फंड मैनेजमेंट में भी इनकी भूमिका संदिग्ध मानी जाती है।
- समाजवादी विचारधारा वाले कई “यूट्यूब चैनलों” और डिजिटल माध्यमों को फंडिंग देने का भी शक इन पर है।
तो क्या अनिल यादव साहब इसी “धारा” से बहते हुए अपने चैनल की नौका पार कराना चाहते हैं?
📽️ क्या पत्रकारिता अब ‘डील’ बन गई है?
एक निष्पक्ष पत्रकार किसी भी राजनीतिक दल, नेता या विचारधारा से ऊपर होता है। लेकिन जब कोई पत्रकार सिर्फ एक ही नेता की आरती उतारे, और बाकी के लिए मौन धारण कर ले — तो सवाल उठता है: ये पत्रकारिता है या पेड प्रमोशन?
क्या ये वही पत्रकार हैं जो सरकारों की आलोचना के नाम पर जनता का भरोसा लेते हैं, और फिर सत्ता के छायादार पेड़ के नीचे फंडिंग का प्याला लेकर बैठ जाते हैं?
❓ सवाल जनता पूछेगी:
- अनिल यादव जी, आपने कब किसी दूसरे सांसद की तारीफ की? या घोसी के अलावा कहीं और देखना मना है?
- क्या पत्रकारिता का मतलब अब “जिनसे फंड मिले, बस उन्हीं की जय बोलो” रह गया है?
- ED द्वारा नोटिस झेल रहे सांसद की हर बात को स्वर्णिम बताना क्या आपकी साख को गिरा नहीं रहा?
📢 निष्कर्ष: पत्रकारिता नहीं, पॉलिटिकल परजीविता!
अनिल यादव की भूमिका अब पत्रकार की नहीं रही — वे अब राजनीतिक प्रचारक हैं। और वो भी ऐसे सांसद के, जो खुद गंभीर आरोपों में घिरा हुआ है।
जिस पत्रकारिता का धर्म सवाल करना होता है, वो अब ताली बजाने में गर्व महसूस कर रही है।
जनता समझती है, और वक्त आने पर जवाब भी देती है।
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अमरेष यादव
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